रविवार, 13 जून 2021

जितिन प्रसाद और उनकी राजनीति

जुलाई 2016 की बात है, हम शाहजहांपुर में थे। प्रशांत किशोर कांग्रेस के 2017 अभियान से जुड़ चुके थे ग़ुलाम नबी आज़ाद और राजबब्बर की अगुवाई में कांग्रेस की 27 साल यु पी बेहाल यात्रा निकल रही थी। हमारे एक परिचित, जो प्रशांत किशोर के संगठन में कार्यरत हैं , भी यात्रा के साथ शाहजहांपुर पहुंच रहे थे।
उनसे मिलने और यात्रा का रिस्पॉन्स देखने को हम भी शाहजहांपुर टाउनहॉल पहुंचे। उस समय देर रात ग़ुलाम नबी आज़ाद उपस्थित भीड़ को संबोधित कर रहे थे। इतनी रात के में भी गुलाम नबी आज़ाद ऊर्जा से भरे हुए थे।उनका छोटा सा संबोधन प्रभावशाली था और इतनी रात वहां उपस्थित भीड़ भी प्रभावशाली थी। राजबब्बर भीड़ में फंसे होने के कारण लोगों को संबोधित करने तक पहुंच नहीं पाए थे। आज़ाद के बगल में जितिन प्रसाद थे। जितिन उस माहौल से पूरी तरह निस्पृह नज़र आ रहे थे जैसे कि उन्हें ज़बरदस्ती साथ रखा गया हो। 
प्रशांत किशोर के लोग काली टीशर्ट और नीली जीन्स मेँ थे और अधिक से अधिक नेपथ्य में रहने की कोशिश कर रहे थे
"जितिन का प्रभाव है यहां "हमने अपने परिचित से कहा. अबतक काफिला होटल पहुंच चुका था और भीड़ राजबब्बर को घेरे हुए थी। हम थोड़ा भीड़ से अलग खड़े थे। 
इसमें जितिन के लोग कम ही हैं। हमारे परिचित ने बताया कि यात्रा प्रबंधन से अधिक परेशानी तो जितिन के प्रबंधन में हुई है। जितिन तो कार्यक्रम को असफल बनाना चाहते थे। उनका बस चलता तो यात्रा के यहां पहुंचने पर वे यहां होते ही न।
कांग्रेस की एक बड़ी समस्या ये जितिन से लोग हैं। इन्हें मैदान में और संघर्ष में उतरना पसंद नही है। अगर किसी मंच पर पहुंचते हैं तो इन्हें महत्वपूर्ण स्थान चाहिए। 
इसके बहुत पहले जिले के एक निष्ठावान कांग्रेसी ने भी ऐसा ही कुछ कहा था यद्यपि वह प्रसाद परिवार के घोर समर्थकों में से एक था।
प्रसाद भवन के और भी नज़दीकियों की बातों में उनकी परेशानी का संकेत था। वे जितेंद्र प्रसाद से कौशल वाले नही थे। चुनाव हारने और सत्ता से दूर रहने पर राजनीति उनकी समझ आए बाहर थी। वे सत्ता में रहकर तो कार्य कर सकते हैं पर विपक्ष में नही। जितिन ही नही ऐसे कई छोटे-बड़े जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय नेता संघर्ष से दूर रहते रहे हैं ये चाहते रहे हैं कि शीर्ष नेतृत्व चमत्कार करे , कार्यकर्ता मेहनत करें और ये फल खाएं।

जितिन को 2016-17 में ही कांग्रेस छोड़ देना था। देर की वजह शायद गंतव्य रहा हो। अगर बसपा में कुछ दम होता तो उनकी पहली पसंद बसपा होती, उनके पिता जितेंद्र प्रसाद के मायावती से अच्छे संबंध रहे थे और उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते कांग्रेस व बसपा का गठबंधन भी हुआ था। सपा का खुद 2017 में कांग्रेस से समझौता हो गया था और भाजपा अब तक शायद उन्हें लटकाये रखी हो। पिछले कुछ समय से गंतव्य न मिलने की छटपटाहट उनमे साफ नज़र आ रही थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में काफी हद तक आगे बढ़ने के बाद कुछ ठोस न मिल पाने की वजह से उन्हें कदम वापस खींचने पड़े थे। उसके बाद उन्होंने जातिवादी राजनीति को केंद्र बनाते हुए खुद को लाइमलाइट में लाने की कवायद शुरू की उनकी इस नई राजनीति में जातिवाद के अलावा और कोई विचारधारा नही होगी यह उन्होंने विजय मिश्रा वाले बयान से ज़ाहिर कर दिया। बाद में लेटर राजनीति में शामिल होने के पीछे उनकी यही मंशा थी कि और राजनैतिक दल खासकर भाजपा उन्हें विद्रोही माने।

जितिन को अभी तक कांग्रेस में जो मिलता रहा है वह उनके राजनैतिक कौशल से युक्त पिता की विरासत के कारण ही रहा है। जिले की राजनीति में तो भाजपा ही नही अन्य सभी दलों को भी जोड़ लें तो आज की तारीख में सबसे कद्दावर नेता प्रदेश के संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना ही हैं। जितिन को भाजपा में उनके नेतृत्व में कार्य करना होगा। सुरेश खन्ना को तो इतनी बार लगातार विधायक बनने के बाद भी शाहजहांपुर में पैदल घूमते देखा जा सकता है। क्या जितिन ऐसा कर पाएंगे या फिर भाजपा उन्हें सुरेश खन्ना के अधिक महत्वपूर्ण स्थान देगी। यह देखने वाली बात होगी कि भाजपा में जितिन प्रसाद  अपनी सामंती सोच से बाहर निकल पाते हैं या नही क्योंकि उनकी दो सबसे बड़ी योग्यताओं में से पहली , जितेंद्र प्रसाद का पुत्र होना तो अब उनके किसी काम की रही नही (यद्यपि शाही खानदान के होने के चलते बड़े संबंध तो हमेशा उपयोगी रहते हैं) और दूसरी राहुल गांधी का नज़दीकी होने के चलते हो सकता है कि शुरुआत में भाजपा उन्हें कुछ महत्व दे दे, जैसा कि अभी दिया है, पर बाद में भाजपाई बन के तो उन्हें दिखाना ही होगा।
वैसे एक मज़े की बात यह है कि कांग्रेस में अपने आखिरी असाइनमेंट में जितिन ने कांग्रेस को बंगाल के न्यूनतम स्तर पर पहुंचाते हुए परफेक्ट शून्य पाने में मदद की। कांग्रेस के इस प्रदर्शन की लाभार्थी जितिन की नई पार्टी भाजपा रही जिसने नई बंगाल विधानसभा में कांग्रेस की जगह ली है।
हम यह नही कहते कि जितिन इतने प्रभावशाली रहे होंगे कि काँग्रेस को हानि और भाजपा को लाभ दे पाते मगर सोचिये अगर ऐसा होता तो! कोई इतने दिन से पार्टी में आने का इच्छुक हो उसके सामने शर्त लगा दी जाए कि पहले वफादारी साबित करो। ये है टॉस्क!

रविवार, 14 मार्च 2021

क्यूबिकल के नए मरीज

 

हमारे क्युबिकल में उनकी एंट्री शाम के लगभग 7 बजे हुयी। एसजीपीजीआई लखनऊ के राजधानी कोरोना हॉस्पिटल में हमारे क्युबिकल के छह बेड्स पर अब सिर्फ तीन मरीज थे। क्युबिकल थोड़ा खाली खाली लगता है तो अच्छा लगता है कि मरीज कम हो रहे हैं और हमारे भी जल्दी ही ठीक होकर जाने की संभावना बेहतर है। दोपहर के तीन-चार बजे जब पता चला कि वार्ड में  कुछ नए मरीज आने वाले हैं तो हम मना रहे थे कि नए मरीज किसी और क्युबिकल में जाएँ। वार्ड में  आने वाले कुछ मरीज किसी और क्युबिकल में गए भी पर आखिरकार शाम के सात  बजे आने वाले दो नए मरीज हमारे क्युबिकल में ही आए।

वे माँ-बेटे थे । पता चला कि वे वाराणसी से एंबुलेंस से आए हैं और इसी वजह से उन्हे आने में लेट हुई। वाराणसी में बीएचयू जैसा उत्कृष्ट संस्थान होने के बाद भी उनका एंबुलेंस से इतनी दूर लखनऊ आना हमे समझ में नही आ रहा  था। उन्हे सैटेल होने में समय लग रहा था । इसी समय पता चला कि दरअसल वे कुल तीन लोग थे -माँ-बाप और बेटा । पिता की स्थिति क्रिटिकल थी इसलिए उन्हे आईसीयू में रखा गया था। माँ – बेटे की स्थिति थोड़ा बेहतर थी इसलिए वे हमारे वार्ड में आए। पीजीआई में उनका परिचय था इसलिए उन्हे उम्मीद थी कि तीनों जन साथ में रहेंगे और इस तरह पिता का बेहतर ख्याल रखा जा सकेगा परंतु कोरोना की गंभीरता को देखते हुये डॉक्टर्स इस तरह की कोई सुविधा देने में असमर्थ थे।

क्युबिकल में हम सीनियर थे तो उन्हे हॉस्पिटल के तौर तरीकों की जानकारी देना हमारी भी जिम्मेदारी थी। एक दूसरे का सहयोग ही कोरोना वार्ड में सहारा होता है क्योंकि आपके परिजन तो आपसे मिलने आ नही सकते। नए मरीजों के जानने के लिए कई चीजें होती हैं; मसलन पीने के लिए गुनगुना पानी कहाँ से और कैसे मिलेगा, ओढ़ने के लिए एक और कंबल मांग लेना बेहतर रहेगा, भाप लेने के लिए कप में बोतल का पानी नही नल का पानी डालना होता है और रात का खाना आ चुका है इसलिए उन्हे हॉस्पिटल में पता करना पड़ेगा कि एक्स्ट्रा खाना है या फिर बाहर अपने परिजनों को फोन करके उनसे खाना भिजवाने के लिए कहना है।

उनकी सबसे बड़ी समस्या थी कि आईसीयू में अकेले पड़ गए उनके पिता के पास आवश्यक चीजें पहुँच पा रहीं हैं या नही। वे घर से अपने समान के बैग इस उम्मीद में लाये थे कि सभी साथ रहेंगे पर अब पिता के अलग रहने की स्थिति में उनका सामान एक बैग में करके भिजवाया तो वह मिसप्लेस हो गया। लगातार फोन करते रहने से संतुष्ट न होने पर बेटा वार्ड से निकल कर आईसीयू चला गया। कोरोना हॉस्पिटल  में इस तरह का मूवमेंट प्रतिबंधित है। बाहर से आया कोई सामान  वार्ड के गेट पर ट्रांसपोर्ट (सामान या मरीजों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए नियत हॉस्पिटल स्टाफ ) छोड़ जाता था जिसे वार्ड का स्टाफ अलग अलग क्युबिकल में मरीजों के पास पहुंचाता था। इसी तरह मरीजों को विभिन्न जांच इत्यादि के लिए ट्रांसपोर्ट वार्ड के गेट से ले जाता था और वापस वार्ड के गेट तक छोड़ जाता था। वार्ड से कोई भी सामान बाहर नही भेजा जा सकता था। बेटे के आईसीयू वार्ड चले जाने से एक असामान्य स्थिति उत्पन्न हो गई ।

उधर आईसीयू वार्ड में अकेले पड़े उनके पिता भी अत्यंत परेशानी महसूस कर रहे थे । वृद्धावस्था में व्यक्ति समान्यतः अपने परिजनों पर निर्भर हो जाता है । यद्यपि बातचीत से पता चला कि उनके पिता इतने अशक्त नही थे कि आईसीयू स्टाफ से सहयोग न मांग सकें परंतु कई वर्षों से चली आ रही परिजनों पर उनकी निर्भरता उन्हे हॉस्पिटल स्टाफ पर भरोसा करने या उनसे सहयोग मांगने से रोक रही थी। इधर माँ-बेटा और उधर पिता परेशान और हॉस्पिटल के बाहर उनके परिजन परेशान।

राजधानी कोरोना हॉस्पिटल पिछले कई महीनों से कोरोना प्रोटोकाल्स के तहत कार्य कर रहा था और इस तरह की स्थितियों से निपटने में वे समझ का परिचय दे रहे थे। पिता की कई राउंड की काउंसलिंग के बाद अंततः हॉस्पिटल के इंचार्ज ने उन्हे और हमारे क्युबिकल में आकर माँ-बेटे को समझाया। इंचार्ज के सहानुभूति भरे स्वर ने पिछली रात से चली आ रही उनकी शिकायत पर मरहम का कार्य किया। अब तक मिस्प्लेस्ड सामान भी मिल चुका था। इस तरह से वे माँ-बेटे अब सामान्य हो चुके थे। पिता से फोन पर हो रही उनकी बात से समझ आ रहा था कि अब वे भी नई परिस्थियों के अनुरूप स्वयं को ढाल रहे हैं।

उनके परिवार में कुल छह लोग थे। माँ-बाप, बेटा और उसकी पत्नी और उनके दो आठ और दस वर्षीय बच्चे। पिछले माह उनके किसी परिजन के घर में विवाह था और कुछ मेहमान उनके घर भी रुके थे। सारी सावधानी के बाद भी कोरोना ने उनके घर दस्तक दे ही दी। माँ-बाप की अधिक उम्र और मोहल्ले में कोरोना संक्रमित होने की बात फैलने  के डर ने उन्हे वाराणसी से दूर लखनऊ आने के लिए मजबूर किया। बेटे की पत्नी का कोरोना टेस्ट नही करवाया गया। पति टेस्ट करवा कर पॉज़िटिव होकर माँ-बाप के साथ था, पत्नी की भी रिपोर्ट पॉज़िटिव होती तो बच्चों को कौन संभालता ! अब स्थिति यह थी कि पत्नी और बच्चे घर पर बंद हैं। जिस परिजन के घर विवाह था उनका पूरा परिवार पॉज़िटिव हो गया था । कोरोना संक्रमित होने के बाद एक बड़ी ज़िम्मेदारी मोहल्ले में बात छुपाने की भी होती है अन्यथा घर में बंद होकर रहने में भी जीना मुश्किल हो जाता है।

अगले दिन राउंड पर आए डॉक्टर्स ने माँ-बेटे को बताया कि पिता की स्थिति पहले से बेहतर है और आश्वासन दिया कि एंटी वायरल का कोर्स पूरा होने तक कोई कांप्लीकेशन नही होती है तो उन्हे भी इस वार्ड में शिफ्ट किया जा सकता है। माँ-बेटे अपने परिजनों से बात करते हुये हॉस्पिटल स्टाफ और सुविधाओं की प्रशंसा कर रहे थे , यद्यपि पहली रात वे अत्यंत असंतुष्ट एवं नाराज थे

कोरोना बीमारी एक अभूतपूर्व स्थिति है । अभूतपूर्व इसलिए कि हॉस्पिटल के बाहर बैठे मरीज के परिजन उससे नही मिल सकते हैं। ऐसे में हॉस्पिटल स्टाफ का रोल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। संभव है कि शुरुआत में कोरोना के बारे में जानकारी के अभाव ने सरकारी मेडिकल और पैरा-मेडिकल स्टाफ में डर फैलाया रहा हो पर मेरे अपने अनुभव यह कहते हैं कि इस बीमारी के खिलाफ लड़ाई में सरकारी मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ ने अभूतपूर्व कार्य किया। हमें याद है कि जुलाई  माह में एक आवश्यकता (कोरोना से इतर मामले में) पड़ने पर एक बेहद लोकप्रिय  निजी चिकित्सक ने फोन पर भी बात करने से यह कह कर मना कर दिया कि “मान लीजिये अभी मै डॉ हूँ ही नही।” वहीं जिला अस्पताल में कार्यरत एक चिकित्सक ने स्वयं रुचि लेकर सहयोग दिया जबकि उस समय वे स्वयं कोरोना संक्रमित होकर घर पड़े हुये थे। राजधानी कोरोना हॉस्पिटल लखनऊ के मेरे अनुभवों ने मेरी इस सोच को और मजबूत किया कि हमें सार्वजनिक  स्वास्थ्य व्यवस्था को और सुदृढ़ और समृद्ध करने की आवश्यकता है और स्वास्थ्य व्यवस्था हर हालत में सरकार के हाथ में रहनी चाहिए। जन स्वास्थ्य को लाभप्रदता के भंवरजाल से दूर रखा ही जाना चाहिए।

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