शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

डिजिटली बी पी एल होने की व्यथा

रात के एक बजे थे अचानक मोबाइल की एस एम् एस टोन गुहार लगाती है ।
एस एम् एस एक दोस्त का था जो दिल्ली में बैठा हुआ था । अभी थोडी देर पहले तक वो जिद कर रहा था कि ऑनलाइन आओ कुछ बात करनी है। तमाम कोशिशों के बाद भी जब नेट कनेक्ट नही हो पाया तो हमने हथियार डाल दिए और वो मायूस होकर चुप होगया।
यु आर डिजिटली बी पी एल!
एस एम् एस कहता है।
डिजिटली बी पी एल होना आज के युग में एक बड़ी परेशानी की बात हो गई है।
दिल्ली और लखनऊ में रहने वाले के लिए ३जी होना बी पी एल होना है डिजिटली बी पी एल !
देश के जिस हिस्से में आजकल हम हैं वहां पर लोग कई तरह से बी पी एल हैं
२००१ की जनगणना के हिसाब से ५१००० के आस पास की आबादी वाले इस इलाके में करीब १०००० के आस-पास बी पी एल राशन कार्ड हैं। पाँच सदस्यों वाले परिवार का हिसाब लगायें तो कोई पचास हज़ार बी पी एल!
राशन कार्ड में गरीबी जम के झलकती है । कोटेदार के कोई बीस हज़ार रूपये खर्च होते हैं अलग अलग लोगों को खुश करने में। अब इसके बाद उसकी कमाई भी होती होगी। तो फ़िर गरीबी कमाई का अच्छा साधन हुआ। एक बी पी एल परिवार कितने लोगों की गरीबी दूर करता है इसका हिसाब लगाने पर पता चलता है कि बी पी एल होना कितना जरूरी है।
लखनऊ में सामजिक परिवर्तन स्थल से गुजरें तो सामाजिक परिवर्तन नजर आता है । चुंधियाती हुई रौशनी ! पूरा इलाका रात में भी दिन को मात देता हुआ सा लगता है।
लखनऊ से बाहर निकलते ही पता चलता है कि बाकी के इलाके बिजली के हिसाब से बी पी एल हैं। अभी हम जहाँ बैठे हैं वहां हफ्ते-वार बिजली की व्यवस्था चलती है । एक हफ्ते में दिन में लाईट आती है (आती जाती है ) , तो अगले हफ्ते रात में (आती-जाती है )। सामाजिक परिवर्तन लखनऊ में नजर आता है लखनऊ से बाहर गायब हो जाता है।
खैर जो चीजें सिर्फ़ दिखाने की हैं वो लखनऊ और दिल्ली में ही शोभा देती हैं । सामाजिक परिवर्तन दिखाने की ही चीज है शायद होने की नही।
एक इलाके में पहुंचे वहाँ बोर्ड लगा हुआ था -
मोबाइल चार्जिंग - पाँच रूपये मात्र।
बिजली नही पहुँची लेकिन मोबाइल मौजूद है अब मोबाइल है तो चार्ज भी होना होगा। लोग डिजिटल बैकवर्ड नेस से बाहर निकल चुके हैं बिजली आए न आए।
मोबाइल कंपनियाँ नए नए मोबाइल निकाल रही हैं बिजली आए न आए मोबाइल चलता जाए!
उन्हें धंधा चलाना है बिजली आए न आए , उन्हें धंधा चलाना है लोगों की जेब में जितना भी पैसा हो उसे ध्यान में रखते हुए ।

कुछ दिन पहले एक थोडा ख़ुद को गिनाने वाले ने हमें धमकी दी थी
-रहना तो यही है न !
हमें सुनकर गुस्सा आ गया
- क्यों यहाँ कौन से सुरखाब के पर लगे हुए हैं ? और यार तुम लोग एक लाईट तो अपनी सही नही करवा पाते आ जाते हो छोटी -छोटी बातों पर धमकी देने
हमारी बात सुनकर वो चुप हो गया हमने उसकी दुखती राग पर हाथ रखा था। वो सामाजिक परिवर्तन स्थल वाले दल का कार्यकर्त्ता था

सोमवार, 2 नवंबर 2009

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां

द्रौपदेय ब्लॉग से साभार
२८
-२९ अक्टूबर 2009 की रात में अयोध्या में पञ्च-कोषीपरिक्रमा पुनः इस वर्ष किया, इसके पूर्व जब परिक्रमा की थी तो हम सरकारी अधिकारी थे,एकाध बार तो मेले में ही मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात रहे,इस बार हम एक सामान्यआदमी की तरह परिक्रमा- पथ पर चलती हुई अपार भीड़ में बिल्कुल अकेले चल रहे थे,जब साथ कोई हो,कुछ हो तो असंग की स्थिति होती है, प्रातः चार बजे का समय था,परिक्रमा -पथ पर चलते समय रामराम कहने केअलावा इधर उधर देखते जा रहे थे,स्त्रीपुरुष ,बच्चे-बूढे,सभी अपनी धुन में सीताराम -सीताराम कहते चले जा रहेथे,निम्न एवं मध्यम बर्ग की कतिपय महिलाएं राम जन्म ,सीता-स्वयंबर,बन-गमन,
लक्ष्मण -मूर्छा , आदि काकारुणिक बर्णन लोक-संगीत के माध्यम से कर रहीं थीं उच्च तथा मध्यमोच्च बर्ग के लोग मानों.इस बात काप्रदर्शन कर रहे थे कि इतने बड़े होते हुए भी वह परिक्रमा कर रहे हैं .सब के मन में कुछ कुछ चाह थी,कामनाथी,याचना थी,तृष्णा थी,लोभ था,मोह था,राग था,द्वेष था.यह अपेक्षा उससे थी जो इससे मुक्त था
परिक्रमा वस्तुतः एक ब्यावाहारिक.बैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक ब्यवस्था है.जो भुक्ति तथा मुक्ति दोनों को लक्ष्य कर के निर्धारित कीगयी है. कार्तिक माह में मौसम में बदलाव आता है. गर्मी के बाद जाडा आता है. इसलिए कार्तिक की नवमी,एकादशी तथा पूर्णिमा को क्रमशः चौदह कोशी ,पञ्च कोशी परिक्रमा तथा पूर्णिमा-स्नान का निर्धारण किया गया है. नवमी को चौदहकोष की परिक्रमा जो लगभग ४५ किलोमीटर में है, की जाती है. यह काफी श्रमसाध्य है जिसे करने के बाद थकावट जाती है, साथ ही नंगे पांव करने के कारण लोग थक कर चूर हो जाते हैं किंतु इसे करने के बाद तितीक्षा तथा सहनशीलता में काफी बृद्धि होती है .यहाँ यह विचारणीय है कि यदि इसी पर छोड़ दिया जाय तो पैरों की क्रियाशीलता दुष्प्रभावित हो जायगी ,अतः एकादशी को पंचकोशी [जो लगभग सोलह किलोमीटर है] परिक्रमा का निर्धारण किया गया है,इसे कर लेने के बाद थकावट एकदम दूर हो जाती है .एकादशी से पूर्णिमा तक अयोध्या मेंरह कर सत्संग,भजन-पूजन,इत्यादि करते हुए पूर्णमासी को सरयू-स्नान कर तथा पूर्णतया स्वस्थ होकर लोग घरजाते हैं।
इस लौकिकता के गर्भ में एक आध्यात्मिक रहस्य छिपा है.वास्तव में कोष का अर्थ यहाँखजाना,मंजूषा,गुहा से है .चौदह कोष का अभिप्राय पञ्च कर्मेन्द्रियाँ,पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ तथा चार अन्तः करणमन,बुद्धि,चित्त तथा अंहकार से है.इसकी परिक्रमा करके यानी इसपर नियंत्रण होने के बाद ब्यक्ति पञ्च कोष केक्षेत्र में प्रबेश करता है.यह पञ्च कोष क्रमशः अन्नमयकोश,प्राणमाय कोष ,मनोमय कोष,विज्ञानमय कोष ,तथाआनंदमय कोष.है जिसे ब्यक्ति क्रमशः पार करता है और तभी पूर्णिमा-स्नान का अधिकारी होता है.पूर्णिमा काअभिप्राय पूर्ण प्रकाश,पूर्ण सूख, पूर्ण आनंद है। यह परम स्थिति है.सुखी मीन जिमी नीर अगाधा,जिमी हरि शरण एकहू बाधा . किंतु यह अयोध्या में रह कर,साधू-संन्यासी तथा सदगुरू के सानिध्य में रह कर,तथा अयोध्या केउत्तर में बहने वाली सरयू में स्नान करके ही किया जा सकता है.

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

मृत्यु! आत्मा का अज्ञातवास!

दंभ निमित में मृगतृष्णा के,
गहन-सघन स्वांस अभ्यास|
पुनः व्यंजित वृत्त-पथ पर,
आत्मा का पुनरुक्ति प्रवास|
कल्प-कामना के अनंत में,
लिपिबद्ध अपूर्ण उच्छास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है, जीवनवास|

अवतरण का,
सत्य, मिथक क्या?
यह भ्रम, मन का,
पूर्वाग्रह है|
ज्ञात यही,
अवसर-प्रतिउत्तर|
जिस काया में,
बसता मन है|
पूर्वजन्म की स्मृति शेष,
ज्यौं पुनः न करती देह-अवशेष|
किंचित यह भी ज्ञात नहीं,
तब क्या था?
क्यूँ जीवन पाने का धर्म है?
पूर्व जन्म का दंड मिला,
या
यह अगले जन्म का दंड-कर्म है|
सत्य का संधान न पाकर,
निर्वात उकेरता एकांतवास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है, जीवनवास|

लिप्त कर्म में,
दीप्त कर्म में,
संचित धर्म,
निर्लिप्त आयाम|
कैसा दर्पण श्लेष दृष्टि का?
भूत-भविष्य का कैसा विन्यास?
क्यूँ भ्रम को स्थापित करते?
खंडित कर दो सारे न्यास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है जीवनवास|

जो निश्चय था,
तुम्हारे मन का|
पूर्ण से पहले,
वह अविचल है|
जो लिया यहीं से,
देकर जाओ|
यही कर्म है,
यहीं पर फल है|
त्याग-प्राप्ति संकल्प तुम्हारा,
है, तर्कविहीन तुष्टि का सन्यास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है जीवनवास|

रविवार, 20 सितंबर 2009

ब्लोगिंग में सात साल

सात साल पहले
सितम्बर 2002 की बात है हम इंडिया टुडे पढ़ रहे थे। उसमे एक स्टोरी ब्लोगिंग को लेकर थी । हमें बात जम गई बस तुंरत फैसला किया कि जैसा भी होता हो हमें ब्लॉग चाहिए ही चाहिए । दो-तीन ब्लॉग्गिंग साइट्स के नाम रटे, इंडिया टुडे को एक कोने में उछाला और निकल पड़े नजदीकी साइबर कैफे की खोज में ।
उन दिनों हमें इन्टरनेट के इस्तेमाल के अलावा कंप्यूटर के बारे में कोई जानकारी नही थी। २-३ ब्राउजर पहचानते थे की बोर्ड पहचानते थे, माउस पहचानते थे और जानते थे कि माउस क्लिक करना होता है। ब्लोगर वाकई सरल था हमने बाकियों को किनारे किया और ब्लोगिंग शुरू कर दी । सही तारीख तो नही याद है पर ब्लॉग बनने के हफ्ते भर के अन्दर पहली पोस्ट डाली थी । जो 20 सितम्बर 2002 की तारीख बतलाती है । तो इस लिहाज़ से हमें ब्लोगिंग करते आज 7 साल पूरे हो गए हैं।
शुरूआती ब्लॉगर बड़ा अजीबोगरीब टाइप का होता था। हम आपनी शुरूआती पोस्ट्स में टाइटल का लिंक नही देखते हैं । पता नही टाइटल देने की सुविधा नही थी या फ़िर हम अज्ञानी समझ नही पाते थे ।

परिवर्तनों की शुरुआत

1999 में शुरू हुए ब्लॉगर में जब हमने प्रवेश किया तो उसी समय ब्लॉगर को खरीदने के बारे में गूगल और ब्लॉगर के स्वामित्व वाली पायरा लैब्स में बातचीत चल रही थी।

2003 की शुरुआत में किसी समय पता चला कि पायरा लैब्स अब गूगल की है और ब्लॉगर भी।

ब्लोगर में गूगल ने परिवर्तन लाना शुरू कर दिया और इसी परिवर्तनों की यात्रा में साथ -साथ बहते हुए हम भी सीखते रहे जाने क्या क्या।

और भी कुछ


2003 में हमने एक और ब्लॉगर अकाउंट खोला और एक दूसरा ब्लॉग बनाया । ये ब्लॉग छद्म नाम से थोड़ा आक्रामक होकर लिखने को बनाया था . अब तक हम टिप्पणियाँ देने के महत्त्व से परिचित हो चले थे इसलिए ये ब्लॉग चल निकला . हमारा पहला ब्लॉग जहाँ विजिटर्स का मोहताज था वहीँ दूसरा ब्लॉग अच्छा चल रहा था. २००३-२००५ तक के सालों में हमने जम के झगडा किया और सिरदर्द मोल लिया अंत में दिन ब्लॉग डिलीट करके ओरवेल के १९८४ उपन्यास के पात्रों की तरह गायब हो गए . मजा तो ये है कि हम मौजूद रहते हुए भी गायब हैं । कभी कभी अपने उन पुराने दोस्तों के ब्लोग्स पर घूम आते हैं ।
इन दो सालों में हमने जितना झगडा किया उतना जिंदगी भर नही किया होगा ।


प्राइवेट डायरी


ब्लॉग नामक टूल का एक अच्छा इस्तेमाल निजी डायरी बनाने में भी अच्छे से हो सकता है ॥ ऐसा कुछ जो आप अपने कुछ ख़ास दोस्तों को ही पढाना चाहते हों।
हमने नोटिस किया है कि अपने हिन्दी ब्लॉग जगत में कुछ एक लोग पासवर्ड प्रोटेक्टेड ब्लॉग भी रखते हैं। ये पासवर्ड प्रोटेक्शन हर किसी को उस ब्लॉग तक पहुँचने से रोक देता है । हमने भी इसका इस्तेमाल किया है इसका इस्तेमाल करते हुए हमें लगता है कि हम फ़िर से क्लास में बैठे हैं और दोस्तों से कागज़ की छोटी छोटी पर्चियों पर लिख कर बात कर रहे हों। छोटी पर्चियों संभालने में दिक्कत होती थी तो हमने एक बार बड़े से पेज पर लिखना शुरू कर दिया। वह पेज उन्ही लोगों के हाथो से गुजरता था जो उस बातचीत में शामिल रहते थे। और जिसे जो कुछ कहना होता था वह लिख कर साइन कर देता था।
ऐसे कई पेज तो समय के साथ गुम होते गए पर कुछ आज भी बचे हुए हैं । उन्हें पढ़ना हमेशा आनंद देता है।
ऐसे ही पासवर्ड प्रोटेक्टेड ब्लोग्स हैं।

छोटे से समूह का अपनी सुविधानुसार लोगों की नजरों से ओझल रहते हुए लगातार चलने वाला वार्तालाप ।
जिन्होंने ट्राई किया है वो जानते होंगे कि ये वाकई मजेदार है ।

टिप्पणी प्रसंग !
कुछ नियम
प्रत्येक नए ब्लॉग पर की गई प्रतिक्रिया आपके ब्लॉग के पाठकों में एक और पाठक और टिप्पणी देने वालों में एक और टिप्पणी देने वाला जोड़ सकता है
आप कुछ भी लिखते हैं तो उस लेखन पर आने वाली टिप्पणियाँ आपके द्वारा दूसरे ब्लोगों पर दी गई टिप्पणियों के समानुपाती होती हैं
विवाद लोगों को आकर्षित करने का अचछा माध्यम होता है पर इसके लिए आपको थोड़ा सा नामचीन होना पड़ेगा

हमने अपनी इंग्लिश ब्लोगिंग में ये तीनों नियम इस्तेमाल किए हैं और सफलता पायी हैकहाँ क्या अच्छा है इससे ज्यादा लोगों की रूचि कहाँ क्या बुरा है खोजने में ज्यादा रहती है

खैर!


अभी हाल ही में चिट्ठाचर्चा पर कुश ने एक ब्लॉग और उसपर आई टिप्पणियाँ उजागर कीज्यादा कुछ कहना बेकार है क्योंकि कुश ने सबकुछ कह डाला है पर कभी जब हम अपने ब्लॉग पर आई हुई टिप्पणियाँ पढ़ रहे होते हैं तो अक्सर किसी टिप्पणी को देख कर दिल से आह निकलती है
..... उफ़ बिना पोस्ट पढ़े या बिना समझे टिप्पणी मार दी गई होगी
आप में से कईयों को ऐसा ही लगता होगा

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

गुनहगार

तमाचे से जैसे उसके कान सुन्न से हो गए थे । हाथ लगा कर देखा तो कुछ खून का आभास हुआ होठों पर । अब उसने चारों तरफ़ देखने की कोशिश की तो पाया मारने वाला जा चुका था और आस पास इकट्ठा लोग उसी की तरफ़ देखे जा रहे थे।
ये दिन का कोई एक समय और भरे हुए बाजार में कोई एक जगह थी । समय और जगह महत्वपूर्ण नही थी न ही वो ख़ुद। बस ख़ुद में ही गुम वो कहीं चला जा रहा था कि सामने से आ रहे किसी ने उसे रोका और बिना कुछ पूछे , बिना कुछ कहे एक झन्नाटेदार तमाचा उसे जड़ दिया।
महत्वपूर्ण था वो झन्नाटेदार तमाचा !
दिन के किसी एक समय और भरे बाजार की किसी एक जगह पर बिल्कुल मामूली और महत्वहीन से उस इंसान को लगा कि कम से कम उसे उसकी गलती तो पता होनी चाहिए थी। लेकिन मारने वाला बिल्कुल से तमाचा लगा कर चला गया।
अब जब वो थोड़ा संभला तो पाया कि भरे बाजार में इकठ्ठा भीड़ उसी कि तरफ़ देख रही थी। उनकी आंखों में संवेदना की जगह ख़ुद को लोगों को हुए नही थी। उसने पाया कि सभी लोग उसे ही गुनाहगार मान रहे थे था बहुत दिन क्या सहाय! उस बेहद महत्वहीन इंसान को एक थप्पड़ ने लोगों की नजरों में महत्वपूर्ण बना दिया .
बहुत दिन हुए उसने ख़ुद को लोगों के द्बारा देखते हुए नही पाया था, नही शायद कभी नही पाया था। आज उसने देखा तो पाया कि लोगों की निगाहें बहुत अजीब होती हैं। उसने पाया कि लोग सोचते नही बस देखते हैं और जब लोग देखते हैं तो न जाने क्यों एक गुनाहगार खोजते हैं । उसे लगा कि लोगों को ये उम्मीद ही नही हो सकती कि कोई गुनहगार से हट कर और भी कुछ हो सकता है ।
उसने याद किया कि वो ख़ुद भी लोगों की ही तरह तो है।
जिंदगी के इन तमाम सालों में उसने गुनहगार ही तो खोजें हैं। जिंदगी के इन तमाम सालों में उसे कभी यह नही लगा कि लोग और भी कुछ हो सकते हैं । और कुछ भी ... मसलन बेचारे !
जैसा वह अभी ख़ुद था।
यह चक्रव्यूह है ।
लोगों को बेचारा बना कर उन्हें गुनाहगार बताने का ।
यह चक्रव्यूह है लोगों अलग थलग कर देने का ।
उसने फैसला किया कि उसे अलग थलग नही होना है।
उसने फैसला किया कि उसे वापस उसी गुमनामी में जाना है जहाँ वह लोगों को गुनाहगार समझ सके , लोगों की आरोप लगाती नज़रों से बच सके।
अगले ही पल उसने सबसे नज़दीक एक अपने जैसे लग रहे एक इंसान को खोज निकाला और पूरी मजबूती से एक थप्पड़ उसे जड़ दिया।
आस-पास की भीड़ में एक हलचल सी हुई। वह कांपते हुए किनारे खोजने लगा कि किसी तरह से लोगों कि भीड़ से बच कर भागा जाए
पर यह क्या
वह पहले से ही किनारे था।
लोगों की नजरें किसी और पर टिकी हुईं थी । लोग फुसफुसा कर बातें कर रहे थे । शायद लोग उसी को देख रहे थे जिसे उसने अभी अभी थप्पड़ जड़ा था।
उसने लोगों की निगाहों का अनुसरण किया । भीड़ के बीच एक आदमी खडा था, लोग उसे देखे जा रहे थे।
उसने भी एक उड़ती सी नजर उस पर डाली और उसका मन चिढ से भर गया ।
तो यही है वह गुनाहगार!
वह भूल चुका था कि कुछ देर पहले वह ख़ुद गुनाहगार था ।

राष्ट्रभाषा का तमगा मिले, तुम्हारी पैरवी करूँगा|

सुनो! तुम्हें आती है,
खिचड़ी पकानी,
अंग्रेजी और हिंदी की|
नहीं आती न?
अच्छा! अंग्रेजी में हिंदी,
या हिंदी में अंग्रेजी का,
चटपटा पकवान बनाकार,
गर्व से सीना चौड़ा करके,
उसे परोसना|
कुछ तो सीखा होगा तुमने....
नहीं सीखा?

तब तो तुम,
बिलकुल नहीं चल पाओगे,
और बचा भी नहीं पाओगे,
अपने बचे-खुचे अवशेष को|
महसूस किया है तुमने,
अंग्रेजी के उन्माद को|
जब कोई बेटा हिंदी में,
अंग्रेजी मिलाकर,
अपनी माँ से कहता है-
"माँ आज तुम बहुत सेक्सी लग रही हो"
हा..हा..हा..! उस वक़्त..! उस वक़्त..!
माँ भी वातशल्य को,
क्षण-भर भूल,
निहारने लगती है,
अपने सोलहवें सावन को|
अपने पुराने ढर्रे पर,
चिपों-चिपों करते हो|
क्या हुआ तुम्हारी जननी,
संस्कृत का?
जिसके गर्भ में,
अविर्भाव हुआ था तुम्हारा!
वह भी गायब हो गयी न,
गदहे की सिंघ की तरह|
बात करते हो साहित्य की?
चलो मनाता हूँ,
साहित्य दर्शन है,
लेकिन ये बताओ कि,
दर्शन का भी,
संगठन होता है क्या?
और होती हैं क्या?
इसकी भी प्रतियोगिताएँ,
अपने व्यक्तित्व को,
श्रेष्ठ प्रमाणित करने के लिये|
हिंदुस्तान में,
तुम्हें शुद्ध बोलने वाले कम,
और तुम्हारे नाम की,
रोटी खानेवाले ज्यादा हैं,
गौर किया है कभी तुमने?
वर्ण, जाति, धर्म और
परंपरा का संगठन,
या फिर कोई भी,
मनचाह संगठन,
जानते हो कब बनता है?
इसके भी व्यतिगत रूप से,
बहुत पहलू हैं,
अपने-अपने हिसाब से|
लेकिन मुझे,
जो पहलू मुख्य लगता है,
वह है उसके लोप होने का भय|
अच्छा ये बताओ...
सुना है तुमने कभी,
कि शेरों ने मिलकर,
गीदडों के खिलाफ,
बनाया हो संगठन|
हा! इतना ज़रूर है कि,
गीदड़ एक साथ मिलकर,
हुआं-हुआं करते हैं,
वो भी दिन में नहीं,
अमावस की रात में|
जानते हो,
तुम्हारी सबसे बड़ी,
विवशता क्या है?
तुम "एलीट" नहीं बन पाये|
तुम में कोई योगता नहीं,
कि तुम्हें राष्ट्रभाषा का,
तमगा मिले,
ये कैसे हो सकता है?
फिर भी मैं,
तुम्हारी पैरवी करूँगा|
कानूनी किताब में तुम,
हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा,
के नाम पर,
दर्ज कर दिए जाओगे|
लेकिन...
मेरे एक अंतिम प्रश्न,
का उत्तर दे दो|
यही तुम्हारी योग्यता,
मान बैठूँगा|
कहाँ से लाओगे,
अपने प्रेमियों को,
जो तुम में,
आस्था बनाये रखेंगे तबतक,
जबतक रहेगी ये सम्पूर्ण सृष्टी|
तुम चीटिंगबाज़ी करके,
दे सको अगर इसका उत्तर,
तो इस बात की भी,
तुम्हें छुट है....

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

इन्टरनेट इस्तेमाल करने वालों के साथ रेलवे का सौतेला व्यवहार

अगर आप ई - टिकटिंग सुविधा का इस्तेमाल करते हैं तो आप जानते होंगे कि ई टिकट के साथ पहचान पत्र का होने जरूरी है। वस्तुतः इसके बिना आपका टिकट मान्य नही होता है । हमने कई बार कोशिश की कि रेलवे के इस नियम के पीछे के लोजिक को समझा जाय पर हमें समझ में नही आ पाया।
वस्तुतः पहचान पत्र के पीछे सुरक्षा का पहलू बताया जाता है और यह सोचा जाता है कि इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि टिकट सही के हाथों में है। पर रेलवे के विंडो से लिए गए टिकट में यह अनिवार्यता नही होती है। इन्टरनेट के माध्यम से लिए गए टिकट में टिकट लेने वाला टिकट के लिए भुगतान किसी खाते से ही करता है जिससे कम से कम यह तो सुनिश्चित हो जाता है कि बाद में जब कभी भी टिकट के खरीदार को ट्रैक किया जाना जरूरी हुआ तो भुगतान के खाते के माध्यम से खरीदार को ट्रैक किया जा सकेगा परन्तु रेलवे के विंडो पर टिकट नगद पैसा दे कर खरीदने वाले को ट्रैक किया जा पाना सम्भव नही है।
फ़िर पहचान पत्र की अनिवार्यता क्यों?
ई टिकटिंग में पहचान पत्र की अनिवार्यता टी टी के हाथों में ब्रह्मास्त्र की तरह है और यह व्यवस्था उसके लिए कमाई के अवसर सुलभ कराती है।
मान लीजिये आपके पास ई टिकट है पर पहचान पत्र आप गलती से घर भूल गए हैं । अब आप की शांतिपूर्ण यात्रा टी टी की इच्छा पर निर्भर करती है। नियमानुसार आप टिकट होते हुए भी बिना टिकट यात्रा कर रहे हैं और टी टी आप की सीट या बर्थ किसी और को दे देने के लिए स्वतंत्र है । अगर आपको आपनी सीट या बर्थ चाहिए तो अनिवार्य रूप से टी टी की सहमति की जरुरत होगी और सभी जानते हैं कि ऐसी सहमति टी टी से सिर्फ़ एक ही तरीके से प्राप्त की जा सकती है।

ई टिकटिंग एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे टिकट विक्री में रेलवे का स्टेशनरी का खर्च और स्टाफ का खर्च बचता है इसके साथ ही उसकी ऊर्जा की भी बचत होती है। कायदे से इन बचतों के बदले टिकट खरीदने वालों को कुछ छूट भी दी जा सकती है पर ना जाने क्यों ई टिकटिंग से जुड़े हुए कई नियम- क़ानून इसे लगभग हतोत्साहित ही करते दीखते हैं।

बुधवार, 26 अगस्त 2009

ताजमहल मेरे मोबाइल के कैमरे की नज़र से

पिछले दिनों आगरा जाना हुआ वहाँ से वापसी के वाले दिन थोड़ा समय बच गया था फतेहपुर सीकरी जाने काबहुत मन था पर समय नही था लखनऊ वापसी की जल्दी थी, तो सोचा कि ताजमहल ही घूम आया जाए



ताजमहल उन इमारतों में है जिनकी तस्वीरें सबसे ज्यादा खींची गई हैं ऐसे में ताजमहल की कोई अनोखी फोटोखींच पाना कठिन है ऊपर से मोबाइल के कैमरे से तो और भी कठिन




खैर हम तस्वीरें ले आए



कुछ आप भी देखिये














मंगलवार, 25 अगस्त 2009

अभी नहीं करता तुम्हें, अंतिम प्रणाम!

श्वे़त पर ज्यों,
श्याम बिखरें हैं,
यथावत!
श्लेष भावों के वरण में,
अन्तः का प्रकल्प लेकर|
नित्य प्रतिदिन,
मृत्यु करती है आलिंगन,
पुनर्जीवन के दंभ का संकल्प लेकर|

अट्टहास-सा क्रंदन समेटे,
बाहु-पाश में|
अलिप्त-सा,
अब लिप्त क्यूँ?
किसी अप्रयास में|

है विधि का चक्र ज्यों,
होना निष्प्राण|
श्रेष्ठ यही,
विष्मृत न हो,
जीवन-प्रमाण|

माध्य हूँ मैं कर्म का,
कर्त्तव्य-पथ पर|
गंतव्य से पहले मेरा,
वर्जित विश्राम|

हे मृत्यु! तू ही ले,
अपनी गति को थाम|
अभी नहीं करता तुम्हें,
अंतिम प्रणाम!

मोक्ष नहीं कि,
तू मिले,
अनायास मुझको|
सोच यह कि काल ने,
निगला मुझे है|
ग्रास हूँ मैं वक्र-सा,
सहज नहीं हूँ,
सृजन-बीज हूँ,
काल से डरता नहीं मैं|

तेरी अपनी पीड़ा,
तेरी अपनी हार का|
मैं तो रहा सदा वंचित,
तेरे अनगिन प्रहार का|
याचक नहीं कि स्वार्थवश,
बनूँ प्रार्थी!
क्यूंकि है अन्तरिक्ष स्वयं,
मेरा सारथी!

हे मृत्यु! तू ही ले,
अपनी गति को थाम|
अभी नहीं करता तुम्हें,
अंतिम प्रणाम!

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

कागज की हवेली है


आज जैसे ही हम घर से निकले बारिश की बूँदें शुरू हो गयीं । पहले हौले-हौले और फ़िर तेज। आपना तरीका वही कुश भाई वाला रहा है भाग जाओ या फ़िर भीग जाओ। भीग जाने को ललचाये अपने मन को हमने कपडों और ऑफिस का हवाला दिया , लैपटॉप की और इशारा किया और मुट्ठी बंद है या खुली इसकी परवाह किए बिना भाग खड़े हुए।
पनाह ली एक दूकान के सामने थोडी सी छाया में।
बारिशे आकर्षित करती हैं पर सच तो यह है की हर आकर्षित करने वाली चीज के मानिंद ये भी परेशानी खड़ी करने वाली होती हैं। यह ज्ञान हमें आज ही प्राप्त हुआ।
कुछ लोग भीगते हुए निकल रहे थे उनसे हमें रश्क हुआ ।
कुछ लोग छाते ताने निकल रहे थे उनसे भी हमें रश्क हुआ।
कुल मिला कर टोटल सेंस ऑफ़ डेप्राईवेशन !
भीग न सकने की लाचारी
बरसते पानी में निकल न पाने की लाचारी
हम छाते नही पसंद हैं। आख़िर ये भी कोई बात हुई कि बूंदे अपना दिल खोल के बरस रहीं हों और आप छाता ताने उनको जलाते हुए चले जा रहे हों। पिछ्ले साल की घनघोर में भी हमने छातों और रेनकोट से परहेज बनाये रखा। बारिश होती रही और बाइक के बैग में रखे रेनकोट को ऐसे इग्नोर करते रहे जैसे वो टीवी पर आने वाला जनहित में जारी विज्ञापन हो।
खैर!
इंतज़ार ख़त्म हुआ बारिश बंद हुई । हम थोडी ही दूर आए थे, बूंदे फ़िर जी ललचाने आ गयीं इसबार हमने हाथ में लिए अखबार को अपने सर पर रख लिया ।
ऑफिस पहुँचते पहुँचते अखबार बुरी तरह से भीग चुका था । हमने अखबार को एक किनारे रखा और एक शेर मन ही मन गुनगुनाने लगे
मासूम मोहब्बत का इतना सा फ़साना है
कागज़ की हवेली है, बारिश का ज़माना है।
शायद बारिशों से की जाने वाली मासूम मोहब्बतें ऐसे ही न भीग पाने की लाचारियों की भेंट चढ़ती चली जातीं हैं
शायद छाते भी कसमसाते होंगे अपने नीचे बिना भीगे चले जाते लोगों की लाचारी पर , शायद रेनकोट .........
पता नही ...........................
कुश ने अभी अपने ब्लॉग पर लिखा था हर बारिश की अपनी अलग कहानी होती है।
हर साल की बारिश भी ऐसे ही अलग अलग कहानी लेकर आती है

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

लिंकन का पत्र अपने बेटे के शिक्षक के नाम

यह पत्र अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के शिक्षक को लिखा था . मुझे लगता है इसकी प्रासंगिकता आज भी है
मै जानता हूँ की उसे सीखना है कि
सभी लोग न्याय प्रिय नहीं होते
सभी लोग सच्चे नहीं होते
लेकिन उसे यह भी सिखाएं कि
जहाँ एक बदमाश होता है
वहीं एक नायक भी होता है
यह कि हर स्वार्थी राजनेता के जवाब में
एक समर्पित राजनेता होता है
उसे बताइए कि जहां एक दुश्मन होता है
वहीँ एक दोस्त भी होता है
अगर आप कर सकें तो
उसे ईर्ष्या से बाहर निकालें
उसे खामोश हसीं का रहस्य बताएं
उसे जल्दी यह सीखने दें कि
गुंडई करने वाले बहुत जल्दी चरणस्पर्श करते हैं
अगर पढ़ा सकें तो उसे
किताबों के आर्श्चय के बारे में पढाएं
लेकिन उसे इतना समय भी दें कि
वह आसमान में उड़ती चिडिया के,
धुप में उड़ती मधुमक्खियों के ,
और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के
शाश्वत रहस्य के बारे में सोच सके
उसे स्कूल में यह भी सिखाओ के
नकाल करने से कहीं ज्यादा
स्म्मान्जानक है फेल हो जाना
उसे अपने विचारों में विश्वास
करना सिखाएं,
ताब भी जब सब उसे गलत बताएं
उसे विनम्र लोगों से विनम्र रहना
और कठोर लोगों से कठोर व्यावार करना सिखाएं
मेरे बेटे को ऐसी ताकत दो कि वह उस भीड़ का हिस्सा न बने
जहां हर कोई खेमे में शामिल होने में लगा हो
उसे सिखाओ कि वह सबकी सुने
लेकिन उसे यह भी बताओ कि
वह जो कुछ सुने उसे सच्चाई की छन्नी पर छाने
और उसके बाद जो अच्छी चीज बचे उसे ही ग्रहण करे
अगर आप सिखा सकते हैं तो उसे सिखाएं कि
जब वह दुखी हो तो कैसे हसे
और उसे सिखाएं कि आंसू आना कोई शर्म कि बात नहीं है
उसे सिखाएं कि निंदकों का
कैसे मजाक उडाया जाए
और ज्यादा मिठास से
कैसे सावधान रहा जाए
उसे सिखाएं कि अपने बल और बुद्धि को
कैसे ऊंचे दाम पर बेचे
लेकिन अपने ह्रदय और
आत्मा को किसी कीमत पर न बेचे
उसे सिखाएं कि एक चीखती भीड़ के आगे
अपने कान बंद करले
और अगर वह अपने को सही समझता है तो
जम कर लादे
उससे विनम्रता से पेश आयें
पर छाती से न लगायें रहें
क्योंकि आग में ही तप
कर लोहा मजबूत होता है
उसमें साहस आने दें
उसे अधीर न बनने दें
उसमे बहादुर बनने का धैर्य आने दें
उसे सिखाएं कि वह अपने में गहरा विश्वास रखे
क्योंकि तभी वह मानव जाती में गहरा विश्वास रखेगा
यह एक बड़ी फरमाइश है पर देखिये आप क्या कर सकते हैं
क्योंकि यह छोटा बच्चा मेरा बेटा है .

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

सुप्रीम कोर्ट और वो चुनौती देता धुआं

कभी कभी ऐसा होता है की छोटी सी बात बहुत कुरेद जाती है । खैर इस छोटी सी बात ने मुझे कुरेदने के साथ साथ गुदगुदाया भी और......... मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया जो की मेरी स्वाभाविकता के खिलाफ है। आज मुझे अपने काम से सुप्रीम कोर्ट जाना हुआ। निहायत ही खुली और खूबसूरत जगह है। टीवी में देखने पर उसका बहुत ही छोटा सा अक्स आता है , पर सामने से देखने पर सफ़ेद पत्थरों की विशालता कुछ अलग ही बात कहती है। मैं बहुत दिन बाद किसी ऐसी जगह गया जहाँ मेरा मन छोड़ कर जाने को नही हो रहा था । मैं एक घंटे तक करीने से लगी गाड़ियों , कई सारे पीले बोर्डों पर लिखे हुए निर्देश पढ़ते , पत्थरों के इस व्यापक विस्तार को देखते हुए बाहर निकल रहा था, कि धूम्रपान के विरूद्व निर्देश लगा था। गेट से पहले लगा था इसलिए निगाह पड़ गई। आगे बढ़ते ही दो होनहार आराम से कुर्सी पर बैठ कर बीडी पी रहे थे भारतीय गणराज्य के सर्वोच कोर्ट के" स्वागत" गेट पर।धूम्रपान के विरूद्व निर्देशों के बगल में । मेरे लिए कानून के सबसे सम्मानजनक स्थान पर ।

कई बातें मन में आयीं ।हँसी आई ,गुस्सा भी । सबसे शक्तिशाली संस्थान की सीमाएं(परिवर्तन लाने की ) इससे स्पष्ट क्या होंगी ? कानून शायद सिर्फ़ कागज़ ही नही हमारे मन में भी होता है । अगर आम जनता न मने तो कानून कैसा और कैसी वैधानिकता ।कानून का राज कानून बना देने से नही आ सकता। जन के मन में सही समझ कानून का राज है ।आप इसे अपने समाज परिवर्तन के अपने पहलूवों से जोड़ कर देखिये कुछ ऐसा ही मिलेगा । मेरे मन में सुप्रीम कोर्ट के लिए आदर है , हो सकता है की मैं इस निरादर पर थोड़ा सा प्रतिक्रियात्मक हो गया हूँ । पर आप सोचिये ......जो संस्थान हमारे जीवन की तमाम आजादियों की रक्षा कर रहा हो ,उसका सम्मान , होना ही चाहिए । पर ये अमूल्य योगदान धुओँ प्रेमी दोनों भाई को (शर्त लगा लीजिये) .....नही पता। शायद ये नही पता होने कि वजहें ही निरादर हैं न कि वो धुआं ?

शुक्रवार, 12 जून 2009

बीएसएनएल, रिलाएंस और टाटा इंडिकॉम में से किसका डाटा कार्ड बेहतर रहेगा?

इन दिनों एक जगह टिक कर रह पाना कठिन सा हो रहा है और ऐसे में इन्टरनेट पर पहुँचते रहने के लिए लैपटॉप में कनेक्शन ज़रूरी हो गया है.
ब्रॉडबैंड इस्तेमाल करने के बाद डाटा कार्ड पर नेट की गति तो चुभने वाली लगती है फिर भी डाटा कार्ड मजबूरी बन गया है.
पिछले दो एक दिनों में हमने डाटा कार्ड के लिए कई जगह खोज बीन की पर कंफ्यूजन बना रहा.
रिलाएंस की गति तो हमें बहुत धीमी दिख रही है , बीएसएनएल सस्ता है पर होगा कैसा पता नहीं है और टाटा इंडिकॉम का तो कोई आईडिया नहीं है .
क्या कोई सलाह दे सकता है की बीएसएनएल, रिलाएंस और टाटा इंडिकॉम में से किसका डाटा कार्ड बेहतर रहेगा?

रविवार, 31 मई 2009

बस यूँ ही




बरेली में भटकते हुए एक जगह ये दृश्य दिख गया तो हमने सोचा आप सबके लिए ले कर चलें ।
शुक्र कूड़ा कम ही है ।

सोमवार, 11 मई 2009

उत्तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्य -2

शेष से आगे

बसपा की २००७ की चुनावी सफलता के कई आयाम थे। उनमे से एक प्रमुख आयाम चुनाव आयोग की कडाई औरलोगों का वोट देने कम निकलना था चुनाव आयोग की कडाई के चलते बड़े पैमाने पर होने वाली बूथ कैप्चरिंग सिर्फ़ रुकी बल्कि समाज के निचले तबके के लोगों ने, जो बसपा के प्रतिबद्ध वोटर हैं, खुल कर वोट दिया। अन्यवर्गों के लोग हमेशा से कम वोट देते रहे थे और ऐसा ही उन्होंने उस बार भी किया।
इसके अतिरिक्त बसपा को एक प्रमुख लाभ उम्मीदवारों की फ्रेशनेस का भी मिला बसपा के अधिकतर उम्मीदवारचुनावी जंग में ही नही राजनीति में भी नए थे जिसका फायदा उन्हें उनकी जातियों के वोटों के रूप में भी मिला
इसके अलावा लोगों की सपा सरकार के प्रति नाराजगी भी महत्वपूर्ण रही थी। एक नारा भी बहुत जोर शोर से चलाथा
चढ़ गुंडों की छाती पर
मुहर लगाओ हाथी पर

लोकसभा और विधान सभा और बसपा

विधानसभा चुनावों के उलट लोकसभा चुनावों का परिदृश्य अलग होता है। एक सीधा सा गणित देखते हैं मान लेतेहैं एक लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की सीटें आती हैं (जैसा उत्तर प्रदेश में औसत है.) तो कोई एक पार्टी उसलोकसभा क्षेत्र के चार विधान सभा क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद भी पांचवी में हार के चलते पूरी सीट हारसकती है। अतः विधानसभा में प्राप्त सीटें सारे समीकरण पहले जैसे रहने के बावजूद उसी अनुपात में लोकसभासीटों में बदल जाएँ ये जरूरी नही है।
इसके अतिरिक्त विधान सभा चुनाओं की तरह के मुद्दे कमसे कम उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनावों में तो लागू नहीरहते उदहारण के लिए कांग्रेस का पिछले दो लोकसभा और विधान सभा चुनावों में प्रदर्शन देख लें पिछले दोविधानसभा चुनावों में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में २५ के आस-पास सीटें मिली जबकि लोकसभा में यह संख्या -१०रही। साफ़ है कि कांग्रेस विधानसभा चुनावों में बुरा प्रदर्शन करने के बाद भी लोकसभा चुनावों में अपेक्षाकृत कमबुरा प्रदर्शन करती रही है।

बसपा की इन चुनावों में कमियां

बसपा ने इन चुनावों में दूसरी पार्टियों से आनेवाले लोगों को जमकर टिकट दिया है दूसरी पार्टियों से आने वालेलोग जहाँ अपना कुछ जनाधार लेकर आते हैं वहीँ कुछ नकारात्मक आधार भी ले आते हैं। एक उदाहरण के लिएबसपा के अम्बेडकरनगर से उम्मीदवार राकेश पाण्डेय की बात करें तो वहां पर उनके परिवार की बसपा के वहीँ सेमंत्री और प्रमुख नेता रामअचल राजभर से शत्रुता रही है अब बसपा के कैडर के लिए राकेश पाण्डेय के पक्ष मेंप्रचार कर पाना कठिन लग रहा है। उल्लेखनीय है कि यह सीट बसपा प्रमुख मायावती की सीट रही है और इस सीटपर बसपा की हार का खतरा नजर रहा है।
लब्बोलुआब यहं है की बसपा ने फ्रेशनेस का लाभ गवां दिया है जिसका असर लोकसभा के चुनाव परिणामों मेंनजर आना लाजिमी है।

नारा हट गया!


लगता है बसपा के कार्यकर्ताओं को चढ़ गुंडों की छाती पर..... नारा प्रयोग करने की भी हिदायत सी दी गई है इन चुनावों में इस नारे का प्रयोग नजर नही आया। कारण सपा सांसद अफजाल अंसारी और उनके भाई मुख्तारअंसारी दोनों बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, बाहुबली नेता और पूर्व विधायक हरिशंकर तिवारी के परिवार मेंतीन लोकसभा टिकट दी गए। इसके अतिरिक्त बसपा के अनेक विधायकों की कारगुजारियां लोगों के सामने हैं

भाजपा और कांग्रेस की स्थिति भी जैसी बुरी थी वैसी नजर नही रही है
जारी है

रविवार, 10 मई 2009

उत्तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्य-1

आज फ़िर बहुत दिनों के बाद लिखना हो पा रहा है इस बीच जहाँ कुछ लिखना सम्भव नही हो पा रहा है वहीँ अपनेमनपसंद ब्लॉग पढने का समय नही मिल पा रहा है

आम चुनाव

आम चुनाव अपने आखिरी चरण में पहुँच गया हैपहले जहाँ नेता जीत के दावे करते फ़िर रहे थे वहीँ अबएक-दूसरे को रिझाना शुरू कर दिया हैवोटर को रिझाना ख़त्म हुआ अब पार्टियों और नेताओं की बारी है
चुनाव शुरू होने से पहले उत्तर प्रदेश के बारे में कुछ ख़ास तरीके से सोचा जा रहा थाइस सोच में शामिल कुछ बातेंथीं:
- मायावती की बहुजन समाज पार्टी उत्तरप्रदेश से ही कम से कम ४० सीटें तो पा ही सकती है
- कांग्रेस और भाजपा दोनों की स्थिति प्रदेश में बहुत ही बुरी है
- एक कांग्रेस - समाजवादी पार्टी गठबंधन स्वाभाविक गठबंधन है और अगर ये गठबंधन हो जाता है तोबसपा को घाटा पहुंचेगा


कांग्रेस-सपा गठबंधन

कांग्रेस-सपा गठबंधन को स्वाभाविक गठबंधन मानने वाले संभवतः इस एक बात को महत्त्व नही दे रहे थे कि दोनोंके अपने अलग पहलु हैंजहाँ सपा उत्तर प्रदेश में सिमटी हुई पार्टी है वहीँ कांग्रेस उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रदेश सेजनाधार गवां चुकी पार्टी हैउत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अधिक स्पेस देने का मतलब सपा के लिए अपने पाँव परकुल्हाडी मारने जैसा था और कांग्रेस के लिए सपा का प्रभुत्व मान लेने का मतलब था कि वो उत्तर प्रदेश को हमेशाके लिए गवां बैठेबिहार में राजद के साथ हुए गठबंधन के चलते वहाँ के कांग्रेसियों में चल रही कशमकश कोदेखने वाले जान सकते थे कि कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में १५ सीटों पर समझौता कर पाना फिलहाल कितनाकठिन होगा और सपा के लिए १५ से ज्यादा सीटें दे पाना कितना कठिन होगा
वैसे ये तो सच है कि एकसपा-कांग्रेस गठबंधन की आहट ने बसपा के नेताओं के चेहरे पर परेशानी ला ही दी थी

बसपा और लोकसभा चुनाव

बसपा की २००७ के विधानसभा चुनावों में सफलता ने तमाम समीक्षकों को अचंभित कर दिया थाउस सफलताको कुछ ने बसपा की सोशल इंजीनियरिंग का नतीजा बताया कुछ ने और सारे कयास लगायेहमारा मानना हैकि बसपा की इस सफलता के एक नही अनेक पहलु थे
जारी है

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

पहाडों की गोद में गंगा



ऋषिकेश से ऊपर बढ़ते हुए सड़क गंगा के किनारे ऊंचाई पर गंगा के किनारे चलती जाती है इस सड़क से गंगा कोदेखते रहना बहुत ही मनोरम होता है रास्ते में अनेक ऐसी ज़गाहें आती हैं जहाँ ये लगता है कि बस यहीं रुक जाएँऔर यूँ ही निहारते जाएँ
ये जगह , जहाँ की ये फोटो है , ऋषिकेश से थोड़ा ही ऊपर है पीछे दायीं तरफ़ आप एक बनती हुई ऊंची सी इमारतदेख सकते हैं। ये अपार्टमेंट्स बन रहें हैं और हमें पता चला कि सारे के सारे बिक चुके हैं। कल को जब ऐसे ही ढेरसारे ईंट के पहाड़ खड़े हो जायेंगे तो असली पहाड़ कहाँ जायेंगे जा सकते हैं पहाडों में तो हो आइये कल को ऐसेदृश्य बच पायें बच पायें।
एक दूसरा उपाय प्रकृति कि रक्षा के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने का है पर क्या हम इतने खाली हैं कि प्रकृति केबारे में सोच सकें?


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