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बारिशें! |
नदियों के वारिस हैं, बारिशें साथ होती हैं ॥
कुछ दिल की ...
हमारे क्युबिकल में उनकी एंट्री शाम के लगभग 7 बजे हुयी।
एसजीपीजीआई लखनऊ के राजधानी कोरोना हॉस्पिटल में हमारे क्युबिकल के छह बेड्स पर अब
सिर्फ तीन मरीज थे। क्युबिकल थोड़ा खाली खाली लगता है तो अच्छा लगता है कि मरीज कम
हो रहे हैं और हमारे भी जल्दी ही ठीक होकर जाने की संभावना बेहतर है। दोपहर के
तीन-चार बजे जब पता चला कि वार्ड में कुछ
नए मरीज आने वाले हैं तो हम मना रहे थे कि नए मरीज किसी और क्युबिकल में जाएँ।
वार्ड में आने वाले कुछ मरीज किसी और क्युबिकल
में गए भी पर आखिरकार शाम के सात बजे आने
वाले दो नए मरीज हमारे क्युबिकल में ही आए।
वे माँ-बेटे थे । पता चला कि वे वाराणसी से एंबुलेंस से आए
हैं और इसी वजह से उन्हे आने में लेट हुई। वाराणसी में बीएचयू जैसा उत्कृष्ट
संस्थान होने के बाद भी उनका एंबुलेंस से इतनी दूर लखनऊ आना हमे समझ में नही आ रहा
था। उन्हे सैटेल होने में समय लग रहा था ।
इसी समय पता चला कि दरअसल वे कुल तीन लोग थे -माँ-बाप और बेटा । पिता की स्थिति
क्रिटिकल थी इसलिए उन्हे आईसीयू में रखा गया था। माँ – बेटे की स्थिति थोड़ा बेहतर
थी इसलिए वे हमारे वार्ड में आए। पीजीआई में उनका परिचय था इसलिए उन्हे उम्मीद थी
कि तीनों जन साथ में रहेंगे और इस तरह पिता का बेहतर ख्याल रखा जा सकेगा परंतु
कोरोना की गंभीरता को देखते हुये डॉक्टर्स इस तरह की कोई सुविधा देने में असमर्थ
थे।
क्युबिकल में हम सीनियर थे तो उन्हे हॉस्पिटल के तौर तरीकों
की जानकारी देना हमारी भी जिम्मेदारी थी। एक दूसरे का सहयोग ही कोरोना वार्ड में
सहारा होता है क्योंकि आपके परिजन तो आपसे मिलने आ नही सकते। नए मरीजों के जानने
के लिए कई चीजें होती हैं; मसलन पीने के लिए
गुनगुना पानी कहाँ से और कैसे मिलेगा, ओढ़ने के लिए एक और
कंबल मांग लेना बेहतर रहेगा, भाप लेने के लिए कप
में बोतल का पानी नही नल का पानी डालना होता है और रात का खाना आ चुका है इसलिए
उन्हे हॉस्पिटल में पता करना पड़ेगा कि एक्स्ट्रा खाना है या फिर बाहर अपने परिजनों
को फोन करके उनसे खाना भिजवाने के लिए कहना है।
उनकी सबसे बड़ी समस्या थी कि आईसीयू में अकेले पड़ गए उनके
पिता के पास आवश्यक चीजें पहुँच पा रहीं हैं या नही। वे घर से अपने समान के बैग इस
उम्मीद में लाये थे कि सभी साथ रहेंगे पर अब पिता के अलग रहने की स्थिति में उनका
सामान एक बैग में करके भिजवाया तो वह मिसप्लेस हो गया। लगातार फोन करते रहने से
संतुष्ट न होने पर बेटा वार्ड से निकल कर आईसीयू चला गया। कोरोना हॉस्पिटल में इस तरह का मूवमेंट प्रतिबंधित है। बाहर से
आया कोई सामान वार्ड के गेट पर
ट्रांसपोर्ट (सामान या मरीजों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए नियत
हॉस्पिटल स्टाफ ) छोड़ जाता था जिसे वार्ड का स्टाफ अलग अलग क्युबिकल में मरीजों के
पास पहुंचाता था। इसी तरह मरीजों को विभिन्न जांच इत्यादि के लिए ट्रांसपोर्ट
वार्ड के गेट से ले जाता था और वापस वार्ड के गेट तक छोड़ जाता था। वार्ड से कोई भी
सामान बाहर नही भेजा जा सकता था। बेटे के आईसीयू वार्ड चले जाने से एक असामान्य
स्थिति उत्पन्न हो गई ।
उधर आईसीयू वार्ड में अकेले पड़े उनके पिता भी अत्यंत
परेशानी महसूस कर रहे थे । वृद्धावस्था में व्यक्ति समान्यतः अपने परिजनों पर
निर्भर हो जाता है । यद्यपि बातचीत से पता चला कि उनके पिता इतने अशक्त नही थे कि
आईसीयू स्टाफ से सहयोग न मांग सकें परंतु कई वर्षों से चली आ रही परिजनों पर उनकी
निर्भरता उन्हे हॉस्पिटल स्टाफ पर भरोसा करने या उनसे सहयोग मांगने से रोक रही थी।
इधर माँ-बेटा और उधर पिता परेशान और हॉस्पिटल के बाहर उनके परिजन परेशान।
राजधानी कोरोना हॉस्पिटल पिछले कई महीनों से कोरोना
प्रोटोकाल्स के तहत कार्य कर रहा था और इस तरह की स्थितियों से निपटने में वे समझ
का परिचय दे रहे थे। पिता की कई राउंड की काउंसलिंग के बाद अंततः हॉस्पिटल के
इंचार्ज ने उन्हे और हमारे क्युबिकल में आकर माँ-बेटे को समझाया। इंचार्ज के
सहानुभूति भरे स्वर ने पिछली रात से चली आ रही उनकी शिकायत पर मरहम का कार्य किया।
अब तक मिस्प्लेस्ड सामान भी मिल चुका था। इस तरह से वे माँ-बेटे अब सामान्य हो
चुके थे। पिता से फोन पर हो रही उनकी बात से समझ आ रहा था कि अब वे भी नई
परिस्थियों के अनुरूप स्वयं को ढाल रहे हैं।
उनके परिवार में कुल छह लोग थे। माँ-बाप, बेटा और उसकी पत्नी और उनके दो आठ और दस वर्षीय बच्चे। पिछले माह उनके किसी
परिजन के घर में विवाह था और कुछ मेहमान उनके घर भी रुके थे। सारी सावधानी के बाद
भी कोरोना ने उनके घर दस्तक दे ही दी। माँ-बाप की अधिक उम्र और मोहल्ले में कोरोना
संक्रमित होने की बात फैलने के डर ने
उन्हे वाराणसी से दूर लखनऊ आने के लिए मजबूर किया। बेटे की पत्नी का कोरोना टेस्ट
नही करवाया गया। पति टेस्ट करवा कर पॉज़िटिव होकर माँ-बाप के साथ था, पत्नी की भी रिपोर्ट पॉज़िटिव होती तो बच्चों को कौन संभालता ! अब स्थिति यह थी कि पत्नी और बच्चे घर पर बंद हैं। जिस परिजन के घर विवाह था
उनका पूरा परिवार पॉज़िटिव हो गया था । कोरोना संक्रमित होने के बाद एक बड़ी
ज़िम्मेदारी मोहल्ले में बात छुपाने की भी होती है अन्यथा घर में बंद होकर रहने में
भी जीना मुश्किल हो जाता है।
अगले दिन राउंड पर आए डॉक्टर्स ने माँ-बेटे को बताया कि
पिता की स्थिति पहले से बेहतर है और आश्वासन दिया कि एंटी वायरल का कोर्स पूरा
होने तक कोई कांप्लीकेशन नही होती है तो उन्हे भी इस वार्ड में शिफ्ट किया जा सकता
है। माँ-बेटे अपने परिजनों से बात करते हुये हॉस्पिटल स्टाफ और सुविधाओं की
प्रशंसा कर रहे थे , यद्यपि पहली रात वे
अत्यंत असंतुष्ट एवं नाराज थे
कोरोना बीमारी एक अभूतपूर्व स्थिति है । अभूतपूर्व इसलिए कि
हॉस्पिटल के बाहर बैठे मरीज के परिजन उससे नही मिल सकते हैं। ऐसे में हॉस्पिटल
स्टाफ का रोल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। संभव है कि शुरुआत में कोरोना के बारे
में जानकारी के अभाव ने सरकारी मेडिकल और पैरा-मेडिकल स्टाफ में डर फैलाया रहा हो
पर मेरे अपने अनुभव यह कहते हैं कि इस बीमारी के खिलाफ लड़ाई में सरकारी मेडिकल और
पैरा मेडिकल स्टाफ ने अभूतपूर्व कार्य किया। हमें याद है कि जुलाई माह में एक आवश्यकता (कोरोना से इतर मामले में)
पड़ने पर एक बेहद लोकप्रिय निजी चिकित्सक
ने फोन पर भी बात करने से यह कह कर मना कर दिया कि “मान लीजिये अभी मै डॉ हूँ ही
नही।” वहीं जिला अस्पताल में कार्यरत एक चिकित्सक ने स्वयं रुचि लेकर सहयोग दिया
जबकि उस समय वे स्वयं कोरोना संक्रमित होकर घर पड़े हुये थे। राजधानी कोरोना
हॉस्पिटल लखनऊ के मेरे अनुभवों ने मेरी इस सोच को और मजबूत किया कि हमें
सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को और सुदृढ़
और समृद्ध करने की आवश्यकता है और स्वास्थ्य व्यवस्था हर हालत में सरकार के हाथ
में रहनी चाहिए। जन स्वास्थ्य को लाभप्रदता के भंवरजाल से दूर रखा ही जाना चाहिए।