जुलाई 2016 की बात है, हम शाहजहांपुर में थे। प्रशांत किशोर कांग्रेस के 2017 अभियान से जुड़ चुके थे ग़ुलाम नबी आज़ाद और राजबब्बर की अगुवाई में कांग्रेस की 27 साल यु पी बेहाल यात्रा निकल रही थी। हमारे एक परिचित, जो प्रशांत किशोर के संगठन में कार्यरत हैं , भी यात्रा के साथ शाहजहांपुर पहुंच रहे थे।
उनसे मिलने और यात्रा का रिस्पॉन्स देखने को हम भी शाहजहांपुर टाउनहॉल पहुंचे। उस समय देर रात ग़ुलाम नबी आज़ाद उपस्थित भीड़ को संबोधित कर रहे थे। इतनी रात के में भी गुलाम नबी आज़ाद ऊर्जा से भरे हुए थे।उनका छोटा सा संबोधन प्रभावशाली था और इतनी रात वहां उपस्थित भीड़ भी प्रभावशाली थी। राजबब्बर भीड़ में फंसे होने के कारण लोगों को संबोधित करने तक पहुंच नहीं पाए थे। आज़ाद के बगल में जितिन प्रसाद थे। जितिन उस माहौल से पूरी तरह निस्पृह नज़र आ रहे थे जैसे कि उन्हें ज़बरदस्ती साथ रखा गया हो।
प्रशांत किशोर के लोग काली टीशर्ट और नीली जीन्स मेँ थे और अधिक से अधिक नेपथ्य में रहने की कोशिश कर रहे थे
"जितिन का प्रभाव है यहां "हमने अपने परिचित से कहा. अबतक काफिला होटल पहुंच चुका था और भीड़ राजबब्बर को घेरे हुए थी। हम थोड़ा भीड़ से अलग खड़े थे।
इसमें जितिन के लोग कम ही हैं। हमारे परिचित ने बताया कि यात्रा प्रबंधन से अधिक परेशानी तो जितिन के प्रबंधन में हुई है। जितिन तो कार्यक्रम को असफल बनाना चाहते थे। उनका बस चलता तो यात्रा के यहां पहुंचने पर वे यहां होते ही न।
कांग्रेस की एक बड़ी समस्या ये जितिन से लोग हैं। इन्हें मैदान में और संघर्ष में उतरना पसंद नही है। अगर किसी मंच पर पहुंचते हैं तो इन्हें महत्वपूर्ण स्थान चाहिए।
इसके बहुत पहले जिले के एक निष्ठावान कांग्रेसी ने भी ऐसा ही कुछ कहा था यद्यपि वह प्रसाद परिवार के घोर समर्थकों में से एक था।
प्रसाद भवन के और भी नज़दीकियों की बातों में उनकी परेशानी का संकेत था। वे जितेंद्र प्रसाद से कौशल वाले नही थे। चुनाव हारने और सत्ता से दूर रहने पर राजनीति उनकी समझ आए बाहर थी। वे सत्ता में रहकर तो कार्य कर सकते हैं पर विपक्ष में नही। जितिन ही नही ऐसे कई छोटे-बड़े जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय नेता संघर्ष से दूर रहते रहे हैं ये चाहते रहे हैं कि शीर्ष नेतृत्व चमत्कार करे , कार्यकर्ता मेहनत करें और ये फल खाएं।
जितिन को 2016-17 में ही कांग्रेस छोड़ देना था। देर की वजह शायद गंतव्य रहा हो। अगर बसपा में कुछ दम होता तो उनकी पहली पसंद बसपा होती, उनके पिता जितेंद्र प्रसाद के मायावती से अच्छे संबंध रहे थे और उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते कांग्रेस व बसपा का गठबंधन भी हुआ था। सपा का खुद 2017 में कांग्रेस से समझौता हो गया था और भाजपा अब तक शायद उन्हें लटकाये रखी हो। पिछले कुछ समय से गंतव्य न मिलने की छटपटाहट उनमे साफ नज़र आ रही थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में काफी हद तक आगे बढ़ने के बाद कुछ ठोस न मिल पाने की वजह से उन्हें कदम वापस खींचने पड़े थे। उसके बाद उन्होंने जातिवादी राजनीति को केंद्र बनाते हुए खुद को लाइमलाइट में लाने की कवायद शुरू की उनकी इस नई राजनीति में जातिवाद के अलावा और कोई विचारधारा नही होगी यह उन्होंने विजय मिश्रा वाले बयान से ज़ाहिर कर दिया। बाद में लेटर राजनीति में शामिल होने के पीछे उनकी यही मंशा थी कि और राजनैतिक दल खासकर भाजपा उन्हें विद्रोही माने।
जितिन को अभी तक कांग्रेस में जो मिलता रहा है वह उनके राजनैतिक कौशल से युक्त पिता की विरासत के कारण ही रहा है। जिले की राजनीति में तो भाजपा ही नही अन्य सभी दलों को भी जोड़ लें तो आज की तारीख में सबसे कद्दावर नेता प्रदेश के संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना ही हैं। जितिन को भाजपा में उनके नेतृत्व में कार्य करना होगा। सुरेश खन्ना को तो इतनी बार लगातार विधायक बनने के बाद भी शाहजहांपुर में पैदल घूमते देखा जा सकता है। क्या जितिन ऐसा कर पाएंगे या फिर भाजपा उन्हें सुरेश खन्ना के अधिक महत्वपूर्ण स्थान देगी। यह देखने वाली बात होगी कि भाजपा में जितिन प्रसाद अपनी सामंती सोच से बाहर निकल पाते हैं या नही क्योंकि उनकी दो सबसे बड़ी योग्यताओं में से पहली , जितेंद्र प्रसाद का पुत्र होना तो अब उनके किसी काम की रही नही (यद्यपि शाही खानदान के होने के चलते बड़े संबंध तो हमेशा उपयोगी रहते हैं) और दूसरी राहुल गांधी का नज़दीकी होने के चलते हो सकता है कि शुरुआत में भाजपा उन्हें कुछ महत्व दे दे, जैसा कि अभी दिया है, पर बाद में भाजपाई बन के तो उन्हें दिखाना ही होगा।
वैसे एक मज़े की बात यह है कि कांग्रेस में अपने आखिरी असाइनमेंट में जितिन ने कांग्रेस को बंगाल के न्यूनतम स्तर पर पहुंचाते हुए परफेक्ट शून्य पाने में मदद की। कांग्रेस के इस प्रदर्शन की लाभार्थी जितिन की नई पार्टी भाजपा रही जिसने नई बंगाल विधानसभा में कांग्रेस की जगह ली है।
हम यह नही कहते कि जितिन इतने प्रभावशाली रहे होंगे कि काँग्रेस को हानि और भाजपा को लाभ दे पाते मगर सोचिये अगर ऐसा होता तो! कोई इतने दिन से पार्टी में आने का इच्छुक हो उसके सामने शर्त लगा दी जाए कि पहले वफादारी साबित करो। ये है टॉस्क!
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