बस छोटी सी एक बात है जो देखने में अजीब लगती है पर अजीब तो न जाने क्या क्या होता रहता है
कभी कभी नीति नियंताओं की बातें समझ में नही आती
कभी कभी तो ख़ुद भी समझ में नही आता कि होना क्या चाहिए।
१४ वर्ष से कम उम्र के बच्चों का काम करना बाल श्रम कहलाता है उन्हें काम पे लगाने वाला दोषी होता है
अलबत्ता वो भीख मांगने के लिए छोड़ दिए जाते हैं
बालश्रम करने वाले बच्चे आगे चल कर कुछ काम तो कर सकते हैं
पर भीख मांगते बच्चे थोड़ा बड़े हो कर क्या करेंगे ।
क्या समाज और व्यवस्था कीजिम्मेदारी बालश्रम रोककर ख़त्म हो जानी चाहिए ?
रविवार, 29 मार्च 2009
रविवार, 22 मार्च 2009
कमी
उगता हुआ सूरज,
ठंडी हवाएं,
घने पेड़ों की छाँव,
जादुई चाँदनी रातें,
कुहरे से ढके रास्ते,
बारिशों में भीगते दिन,
सरसों, अमलताश
और पलाश के फूल!
सबकुछ तो वही है न!
फ़िर क्यों नही लगता
कुछ भी वैसा
जैसा लगता था तुम्हारे साथ !
ठंडी हवाएं,
घने पेड़ों की छाँव,
जादुई चाँदनी रातें,
कुहरे से ढके रास्ते,
बारिशों में भीगते दिन,
सरसों, अमलताश
और पलाश के फूल!
सबकुछ तो वही है न!
फ़िर क्यों नही लगता
कुछ भी वैसा
जैसा लगता था तुम्हारे साथ !
गुरुवार, 19 मार्च 2009
विश्वनाथ मन्दिर और आस्थाओं के सवालात
डॉ अनुराग आर्य की बनारस यात्रा और विश्वनाथ मन्दिर के बारे में पढ़ कर हमें अपनी एक विश्वनाथ मन्दिर कीयात्रा याद आ गई।
बारहवीं की बोर्ड परिक्षा देने के बाद हम और हमारे एक मित्र योगेश वाराणसी एक परीक्षा देने गए थे। वाराणसीहमेशा से हमें आकर्षित करने वाले शहरों में से रहा है। परीक्षा देने के बाद हम दोनों ने निश्चय किया कि घर के लिएरवाना होने से पहले थोडा घूम फ़िर लिया जाय। वाराणसी में यूँ अपने मन से घूमने का विचार कभी दिमाग मेंआया ही नही था सो पता नही था कि अगर घूमना है तो कहाँ घूमना है ऊपर से तुर्रा यह कि हमें बहती धारा की तरहयूँ ही निकल जाने में मज़ा आती है तो किसी से पूछना भी मंज़ूर नही था । योगेश के साथ बड़ी लम्बी बहस के बादतय हुआ कि एक एक करके उसकी और हमारी पसंद की ज़गहों को देखा जायेगा । पहले हमारा नंबर था तो हमभटकते हुए दशाश्वमेध घाट पहुंचे । गंगा का गहरे तक पैठा आकर्षण घाट के किनारे और फ़िर गंगा में इधर उधरफैली गन्दगी देख कर काफूर हो गया । हमारा मन खिन्न हो उठा था । अब योगेश की बारी थी और तब तक वहनास्तिक नही था। हम विश्वनाथ मन्दिर की गलियों में मुड़ चले।
विश्वनाथ मन्दिर जैसे जैसे नज़दीक आता गया पण्डे हमें घेरते गए। हमने योगेश को सिखा रखा था कि किसी पण्डेको साथ नही लेना है हम ख़ुद से मन्दिर देखेंगे । बस हमें बिना इधर उधर देखे मन्दिर की ओर बढ़ते जाना है लेकिनयोगेश जिज्ञासु प्रवृत्ति का होने के चलते एक पण्डे के जाल में फंस ही गया । अब हम पण्डे के मार्गदर्शन में बढ़ने कोविवश थे।
चढावा खरीदकर जब हम मन्दिर के अन्दर पहुंचे तो दर्शन के बाद पण्डे ने हमें बाबा विश्वनाथ के नाम पर वहां केपुजारी को कुछ दान देने को कहा । योगेश अभिभूत था उसने १०० का एक नोट पुजारी को अर्पण किया । अब पण्डेने हमारी तरफ़ निगाह बढ़ाई । हम मन्दिर वन्दिर में चढावे के नाम पर हमेशा से कंजूस रहे हैं पर उसकी नजरों नेहमें भी जेब में हाथ डालने को मजबूर कर दिया। हमारी जेब से भी एक नोट बाहर आया फर्क बस इतना था कि वो१० का था।
हम दर्शन करके बाहर निकलने को उतावले थे पर पंडा हमें आगे ले गया। यहाँ पर उसने हमें अन्नपूर्णा देवी परमाता-पिता के लिए कुछ चढाने को कहा। हम योगेश का हाथ पकड़ने को बढे ही थे कि उसने फ़िर से १०० का नोटआगे कर दिया था । अब माता-पिता के नाम पर क्या कंजूसी ! हमें भी मजबूरन १० का नोट बढ़ाना पड़ा।
हमें लगा था कि अब हम मन्दिर से निकल जायेंगे पर पंडा तो योगेश की जेब की गहराई नापने की सोच चुका था और हमें लेकर वो मन्दिर में न जाने किस ओर एक अंतहीन सी लगने वाली यात्रा पर निकल चुका था। थोडा आगे बढ़ने के बाद मन्दिर में दर्शनार्थी दिखना बंद हो गए। चारों ओर बस सन्नाटा ही सन्नाटा था। मन्दिर में हम किस दिशा में थे, कहाँ थे अंदाजा मिलना बंद हो गया था। हमें एकअनजान सी फ़िल्म याद आने लगी जिसमे पण्डे मन्दिर में आने वालों को लूटा करते थे।
अब योगेश भी ५० और फ़िर १० की ओर बढ़ रहा था और हम तो बस सर झुकाने लग गए थे।
तीन और जगहों पे जाने के बाद हमने कनखियों से देखा कि थोडी दूर पर पुलिस के दो सिपाही एक जगह पर बैठे हैं हमने तयकर लिया कि अब आगे नही जाना है। पंडा आगे आगे चल रहा था हमने योगेश की जेब से पर्स लिया और अपनाऔर उसका दोनों का पर्स छिपा लिया । योगेश को भी डर लगने लगा था । अगला पड़ाव सिपाहियों से ज्यादा दूरनही था जब उसने एक और जगह कुछ चढाने को कहा।
योगेश को पीछे करके हम आगे आ गए और उससे कहा कि अब आपकी दक्षिणा के लिए ही पैसा बचाना हो तोवापस चलिए अब हमारे पास पैसा बिल्कुल नही है। हमने तय किया था कि अगर इसने कुछ आना-कानी की तोअब यहाँ से पुलिस वालों के पास जायेंगे। हमने हाथापाई की पूरी तैयारी कर रखी थी।
फिलहाल थोडी बहस के बाद वो तैयार हो गया हम वापस लौटे। हमने उसे दक्षिणा में ११ रूपये दी तो वो भड़क उठा । उसने हम दोनों के १०१-१०१ मांगे । पर हम चलते बने। उसने काफ़ी दूर तक हमारा पीछा किया फ़िर गालियाँ देनेलगा । "फ़िर आना मन्दिर देखूंगा " की धमकी देकर उसने हमारा पीछा छोड़ा।
इस अनुभव के बाद हमारा मन खट्टा हो चला था और हम सीधे बस स्टैंड की ओर चल पड़े।
हम अभी भी आस्तिक बने हुए हैं पर योगेश नास्तिक हो गया है।
वैसे वाराणसी हमें अभी भी पसंद है वहाँ अक्सर जाते रहते हैं पर अब विश्वनाथ मन्दिर जाने की इच्छा नही होती। गंगा तट भी जाने का मन नही होता बस संकट मोचन होकर वापस आ जाते हैं
बारहवीं की बोर्ड परिक्षा देने के बाद हम और हमारे एक मित्र योगेश वाराणसी एक परीक्षा देने गए थे। वाराणसीहमेशा से हमें आकर्षित करने वाले शहरों में से रहा है। परीक्षा देने के बाद हम दोनों ने निश्चय किया कि घर के लिएरवाना होने से पहले थोडा घूम फ़िर लिया जाय। वाराणसी में यूँ अपने मन से घूमने का विचार कभी दिमाग मेंआया ही नही था सो पता नही था कि अगर घूमना है तो कहाँ घूमना है ऊपर से तुर्रा यह कि हमें बहती धारा की तरहयूँ ही निकल जाने में मज़ा आती है तो किसी से पूछना भी मंज़ूर नही था । योगेश के साथ बड़ी लम्बी बहस के बादतय हुआ कि एक एक करके उसकी और हमारी पसंद की ज़गहों को देखा जायेगा । पहले हमारा नंबर था तो हमभटकते हुए दशाश्वमेध घाट पहुंचे । गंगा का गहरे तक पैठा आकर्षण घाट के किनारे और फ़िर गंगा में इधर उधरफैली गन्दगी देख कर काफूर हो गया । हमारा मन खिन्न हो उठा था । अब योगेश की बारी थी और तब तक वहनास्तिक नही था। हम विश्वनाथ मन्दिर की गलियों में मुड़ चले।
विश्वनाथ मन्दिर जैसे जैसे नज़दीक आता गया पण्डे हमें घेरते गए। हमने योगेश को सिखा रखा था कि किसी पण्डेको साथ नही लेना है हम ख़ुद से मन्दिर देखेंगे । बस हमें बिना इधर उधर देखे मन्दिर की ओर बढ़ते जाना है लेकिनयोगेश जिज्ञासु प्रवृत्ति का होने के चलते एक पण्डे के जाल में फंस ही गया । अब हम पण्डे के मार्गदर्शन में बढ़ने कोविवश थे।
चढावा खरीदकर जब हम मन्दिर के अन्दर पहुंचे तो दर्शन के बाद पण्डे ने हमें बाबा विश्वनाथ के नाम पर वहां केपुजारी को कुछ दान देने को कहा । योगेश अभिभूत था उसने १०० का एक नोट पुजारी को अर्पण किया । अब पण्डेने हमारी तरफ़ निगाह बढ़ाई । हम मन्दिर वन्दिर में चढावे के नाम पर हमेशा से कंजूस रहे हैं पर उसकी नजरों नेहमें भी जेब में हाथ डालने को मजबूर कर दिया। हमारी जेब से भी एक नोट बाहर आया फर्क बस इतना था कि वो१० का था।
हम दर्शन करके बाहर निकलने को उतावले थे पर पंडा हमें आगे ले गया। यहाँ पर उसने हमें अन्नपूर्णा देवी परमाता-पिता के लिए कुछ चढाने को कहा। हम योगेश का हाथ पकड़ने को बढे ही थे कि उसने फ़िर से १०० का नोटआगे कर दिया था । अब माता-पिता के नाम पर क्या कंजूसी ! हमें भी मजबूरन १० का नोट बढ़ाना पड़ा।
हमें लगा था कि अब हम मन्दिर से निकल जायेंगे पर पंडा तो योगेश की जेब की गहराई नापने की सोच चुका था और हमें लेकर वो मन्दिर में न जाने किस ओर एक अंतहीन सी लगने वाली यात्रा पर निकल चुका था। थोडा आगे बढ़ने के बाद मन्दिर में दर्शनार्थी दिखना बंद हो गए। चारों ओर बस सन्नाटा ही सन्नाटा था। मन्दिर में हम किस दिशा में थे, कहाँ थे अंदाजा मिलना बंद हो गया था। हमें एकअनजान सी फ़िल्म याद आने लगी जिसमे पण्डे मन्दिर में आने वालों को लूटा करते थे।
अब योगेश भी ५० और फ़िर १० की ओर बढ़ रहा था और हम तो बस सर झुकाने लग गए थे।
तीन और जगहों पे जाने के बाद हमने कनखियों से देखा कि थोडी दूर पर पुलिस के दो सिपाही एक जगह पर बैठे हैं हमने तयकर लिया कि अब आगे नही जाना है। पंडा आगे आगे चल रहा था हमने योगेश की जेब से पर्स लिया और अपनाऔर उसका दोनों का पर्स छिपा लिया । योगेश को भी डर लगने लगा था । अगला पड़ाव सिपाहियों से ज्यादा दूरनही था जब उसने एक और जगह कुछ चढाने को कहा।
योगेश को पीछे करके हम आगे आ गए और उससे कहा कि अब आपकी दक्षिणा के लिए ही पैसा बचाना हो तोवापस चलिए अब हमारे पास पैसा बिल्कुल नही है। हमने तय किया था कि अगर इसने कुछ आना-कानी की तोअब यहाँ से पुलिस वालों के पास जायेंगे। हमने हाथापाई की पूरी तैयारी कर रखी थी।
फिलहाल थोडी बहस के बाद वो तैयार हो गया हम वापस लौटे। हमने उसे दक्षिणा में ११ रूपये दी तो वो भड़क उठा । उसने हम दोनों के १०१-१०१ मांगे । पर हम चलते बने। उसने काफ़ी दूर तक हमारा पीछा किया फ़िर गालियाँ देनेलगा । "फ़िर आना मन्दिर देखूंगा " की धमकी देकर उसने हमारा पीछा छोड़ा।
इस अनुभव के बाद हमारा मन खट्टा हो चला था और हम सीधे बस स्टैंड की ओर चल पड़े।
हम अभी भी आस्तिक बने हुए हैं पर योगेश नास्तिक हो गया है।
वैसे वाराणसी हमें अभी भी पसंद है वहाँ अक्सर जाते रहते हैं पर अब विश्वनाथ मन्दिर जाने की इच्छा नही होती। गंगा तट भी जाने का मन नही होता बस संकट मोचन होकर वापस आ जाते हैं
समर्पण है अंतिम पड़ाव, इससे पहले कोई इति नहीं!
प्रथम चरण अग्रिम पथ का,
दर्शन का विनिमय आकर्षण|
किन्तु चक्षु की विधि यही,
नयनाभिराम भी बस कुछ क्षण|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
सहसा प्रेम प्रखर हुआ,
लिये बाहु श्रृंगार वरण|
शिलाखंड-सा मैं तत्क्षण,
सहमा!
फिर सोचा कुछ क्षण|
आकर्षण-सी गति-मति इसकी,
अंतर अवशेष यही पाया|
भाव-विनिमय संबोध लिये,
वस्तु-बोध लिये लिपटी माया|
संबंध-धरा पर अंकुर ज्यों,
पुलकित करता जीवन-तन-मन|
ज्ञात यही प्रतिउत्तर मुझको,
यह आशक्ति का स्तन|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठिठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
वस्तु-बोध तब गौण हुआ,
अखंड-प्रवाह-सा कौन हुआ?
यह था क्या मुझमें-तुममें,
तेरा-मेरा सब मौन हुआ|
मनन-गहन की रची विधा पर,
यह कैसी? किसकी है तूती?
चक्षु-हीनता-सी अनुभूति,
यह दो पक्षों की प्रस्तुति|
किन्तु अटल विश्वास नहीं तो,
मानव फिर मरता है हर क्षण|
जीवन-शय्या की अग्नि में,
समर-शेष करता है हर कण|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठिठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
पुंज मोक्ष का पकड़ने,
मार्ग को प्रशस्त कर|
पीड़ा को मैं हरना चाह,
"हरि" को समस्त कर|
आस्था का प्रश्न था,
तेरा क्या? तू कौन है?
तूने जननी को न समझा,
ये तेरी समझ का मौन है|
स्वयं मेरा भी नहीं कुछ,
मैं प्रशस्ति पर खड़ा हूँ|
वात्सल्य की है भूख मुझको,
इसलिये भूखा पड़ा हूँ|
रे मुर्ख! "यायावर" तू अपने,
यात्रा को विस्तार दे|
क्यूँ अड़ा है आस्था पर,
समस्त मिथक का सार ले|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
मेरे लोचन भरे नीर से,
मातृ-भाव अंतिम परिवेश|
गर्भ-चरण सृष्टी की रचना,
है जननी अंतिम विशेष|
यह जीवन का सत्य समझ मैं,
प्रश्न आस्था से दुहराया|
उसके प्रतिउत्तर में मैंने,
समर्पित रूप "माँ" का पाया|
नौ-मास वरण कर धरा-गर्भ-सी,
जीवन में जीवन का सार लिये|
प्रसव-पीड़ा के अतिरेक में,
समर्पण का विस्तार लिये|
यह परिचय सम्पूर्ण सृष्टी का,
गति के मति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
दर्शन का विनिमय आकर्षण|
किन्तु चक्षु की विधि यही,
नयनाभिराम भी बस कुछ क्षण|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
सहसा प्रेम प्रखर हुआ,
लिये बाहु श्रृंगार वरण|
शिलाखंड-सा मैं तत्क्षण,
सहमा!
फिर सोचा कुछ क्षण|
आकर्षण-सी गति-मति इसकी,
अंतर अवशेष यही पाया|
भाव-विनिमय संबोध लिये,
वस्तु-बोध लिये लिपटी माया|
संबंध-धरा पर अंकुर ज्यों,
पुलकित करता जीवन-तन-मन|
ज्ञात यही प्रतिउत्तर मुझको,
यह आशक्ति का स्तन|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठिठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
वस्तु-बोध तब गौण हुआ,
अखंड-प्रवाह-सा कौन हुआ?
यह था क्या मुझमें-तुममें,
तेरा-मेरा सब मौन हुआ|
मनन-गहन की रची विधा पर,
यह कैसी? किसकी है तूती?
चक्षु-हीनता-सी अनुभूति,
यह दो पक्षों की प्रस्तुति|
किन्तु अटल विश्वास नहीं तो,
मानव फिर मरता है हर क्षण|
जीवन-शय्या की अग्नि में,
समर-शेष करता है हर कण|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठिठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
पुंज मोक्ष का पकड़ने,
मार्ग को प्रशस्त कर|
पीड़ा को मैं हरना चाह,
"हरि" को समस्त कर|
आस्था का प्रश्न था,
तेरा क्या? तू कौन है?
तूने जननी को न समझा,
ये तेरी समझ का मौन है|
स्वयं मेरा भी नहीं कुछ,
मैं प्रशस्ति पर खड़ा हूँ|
वात्सल्य की है भूख मुझको,
इसलिये भूखा पड़ा हूँ|
रे मुर्ख! "यायावर" तू अपने,
यात्रा को विस्तार दे|
क्यूँ अड़ा है आस्था पर,
समस्त मिथक का सार ले|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
मेरे लोचन भरे नीर से,
मातृ-भाव अंतिम परिवेश|
गर्भ-चरण सृष्टी की रचना,
है जननी अंतिम विशेष|
यह जीवन का सत्य समझ मैं,
प्रश्न आस्था से दुहराया|
उसके प्रतिउत्तर में मैंने,
समर्पित रूप "माँ" का पाया|
नौ-मास वरण कर धरा-गर्भ-सी,
जीवन में जीवन का सार लिये|
प्रसव-पीड़ा के अतिरेक में,
समर्पण का विस्तार लिये|
यह परिचय सम्पूर्ण सृष्टी का,
गति के मति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
बुधवार, 18 मार्च 2009
वरुण की बात में नया क्या है ?
वरुण के बयानों को लेकर हंगामा सा मचा हुआ है । आश्चर्य हमें भाजपा के विरोधियों की प्रतिक्रिया से नही है हमेंआश्चर्य भाजपा के नेताओं की प्रतिक्रिया पर हो रहा है । वरुण गांधी ने ऐसा कुछ नही कहा है जो भाजपा कीविचारधारा में शामिल नही रहा है । विश्वास न हो तो बस इसी हिन्दी ब्लॉग जगत में कुछ छद्म राष्ट्रवादियों की जगहजगह पर प्रतिक्रियाओं को देख लें ।
थोड़ा समय पीछे चलते हैं और लखनऊ में विधानसभा चुनाओं के पहले भाजपा नेताओं द्वारा जारी की गई सी डीको याद करते हैं। वरुण की बातें और उस सी डी में बातें एक ही जैसी कही गई हैं। उस सी डी को बाकायदा भाजपा केमंच से भाजपा के जमे जमाये नेताओं ने जारी किया था। उस सी डी के मामले में बाकायदा चुनाव आयोग नेमामला भी दर्ज किया था । अब चुनाव आयोग (जिसके एक स्वघोषित निष्पक्ष सदस्य दूसरे को कांग्रेसी घोषितकर चुके हैं ) उस मामले को दबा कर बैठा है । हो सकता है वरुण का मुद्दा भी वैसे ही दबा लिया जाय।
हम उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। फैजाबाद समेत अलग अलग जगहों पर रह चुके हैं और ९ साल की उम्र से चुनावसभाओं को देख समझ रहे हैं । संत, साध्वी कहे जाने वाले लोगों को सुना है , संघ परिवार की कार्यप्रणाली को बहुतनजदीक से देखा और समझा है , शिशु मंदिरों में पढ़ाई की है और वो समय अयोध्या के बहुत नजदीक गुजारा हैजब राम मन्दिर आन्दोलन चरम विन्दु पर था। हम देश के कोने कोने से आए कार सेवकों को नजदीक से देख सुनऔर समझ चुके हैं।
इतना देखने सुनने के बाद आज आश्चर्य नही होता कि कोई भाजपा का तथाकथित उभरता नेता कैसे बोल सकताहै। आश्चर्य इस बात पर होता है कि शाहनवाज और मुख्तार जैसे लोग सिर्फ़ दिखाने के लिए उस पर विरोध जतातेहैं।
इन्हे अटल बिहारी का गोवा भाषण सही लगा था, २००२ का गुजरात सही लगा था , २००७ की सी डी सही लगीथी तो आज वरुण के भाषण पर ही ड्रामा करने की जरुरत क्या थी?
वस्तुतः भाजपा के चहेते बन चुके नरेंद्र मोदी का उदहारण भाजपा के अन्य नेताओं के सामने है। अपनी विचारधाराको डंके की चोट पर लागू करो (भाजपा की विचारधारा यही है जो नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी के भाषणों में नजरआती है ) और फ़िर भाजपा के अन्दर भी कोई विरोध करने की हालत में नही रह पायेगा। २००२ के चुनावों के समयआडवाणी तक नरेंद्र मोदी से हरेन पंड्या के मुद्दे पर हार चुके हैं तो औरों की क्या बिसात। अब भाजपा केमहत्वाकांक्षी लोग जानते हैं कि उन्हें आगे बढ़ना है तो नरेंद्र मोदी से आगे निकलना होगा ।
वरुण गांधी जो कर रहेहैं वह यही है ।
भाजपा में आगे निकलने का यही रास्ता है।
थोड़ा समय पीछे चलते हैं और लखनऊ में विधानसभा चुनाओं के पहले भाजपा नेताओं द्वारा जारी की गई सी डीको याद करते हैं। वरुण की बातें और उस सी डी में बातें एक ही जैसी कही गई हैं। उस सी डी को बाकायदा भाजपा केमंच से भाजपा के जमे जमाये नेताओं ने जारी किया था। उस सी डी के मामले में बाकायदा चुनाव आयोग नेमामला भी दर्ज किया था । अब चुनाव आयोग (जिसके एक स्वघोषित निष्पक्ष सदस्य दूसरे को कांग्रेसी घोषितकर चुके हैं ) उस मामले को दबा कर बैठा है । हो सकता है वरुण का मुद्दा भी वैसे ही दबा लिया जाय।
हम उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। फैजाबाद समेत अलग अलग जगहों पर रह चुके हैं और ९ साल की उम्र से चुनावसभाओं को देख समझ रहे हैं । संत, साध्वी कहे जाने वाले लोगों को सुना है , संघ परिवार की कार्यप्रणाली को बहुतनजदीक से देखा और समझा है , शिशु मंदिरों में पढ़ाई की है और वो समय अयोध्या के बहुत नजदीक गुजारा हैजब राम मन्दिर आन्दोलन चरम विन्दु पर था। हम देश के कोने कोने से आए कार सेवकों को नजदीक से देख सुनऔर समझ चुके हैं।
इतना देखने सुनने के बाद आज आश्चर्य नही होता कि कोई भाजपा का तथाकथित उभरता नेता कैसे बोल सकताहै। आश्चर्य इस बात पर होता है कि शाहनवाज और मुख्तार जैसे लोग सिर्फ़ दिखाने के लिए उस पर विरोध जतातेहैं।
इन्हे अटल बिहारी का गोवा भाषण सही लगा था, २००२ का गुजरात सही लगा था , २००७ की सी डी सही लगीथी तो आज वरुण के भाषण पर ही ड्रामा करने की जरुरत क्या थी?
वस्तुतः भाजपा के चहेते बन चुके नरेंद्र मोदी का उदहारण भाजपा के अन्य नेताओं के सामने है। अपनी विचारधाराको डंके की चोट पर लागू करो (भाजपा की विचारधारा यही है जो नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी के भाषणों में नजरआती है ) और फ़िर भाजपा के अन्दर भी कोई विरोध करने की हालत में नही रह पायेगा। २००२ के चुनावों के समयआडवाणी तक नरेंद्र मोदी से हरेन पंड्या के मुद्दे पर हार चुके हैं तो औरों की क्या बिसात। अब भाजपा केमहत्वाकांक्षी लोग जानते हैं कि उन्हें आगे बढ़ना है तो नरेंद्र मोदी से आगे निकलना होगा ।
वरुण गांधी जो कर रहेहैं वह यही है ।
भाजपा में आगे निकलने का यही रास्ता है।
सोमवार, 16 मार्च 2009
पाकिस्तान: बुनियाद का दंश
अभी-अभी समाचार मिल रहा है कि पकिस्तान के प्रधान मंत्री की जस्टिस चौधरी सहित अन्य जजों को बहालकरने की घोषणा के बाद नवाज़ शरीफ ने अपना लोंग-मार्च वापस ले लिया है । अब सभी निगाहें २१ मार्च कीप्रस्तावित बहाली पर लग गयीं हैं।
जस्टिस चौधरी की बहाली के आगे क्या क्या परिणाम हो सकते हैं यह तो समय ही बताएगा पर आज कीपाकिस्तान की बुरी स्थिति की जिम्मेदारी अगर उसकी बुनियाद पर डाली जाय तो ग़लत नही होगा।
पाकिस्तान के निर्माण के लिए दिए गए तर्कों को अलग रख दें तो भी पाकिस्तान निर्माण के बाद शुरू से हीपकिस्तान के नेताओं ने जो परम्पराएं डालनी शुरू कर दीं वो आगे चल कर परेशानी का सबब बनने वाली ही थीं ।
मज़हब के आधार पर बने हुए देश में मज़हबी जूनून रखने वालों को सत्ता से अलग कर पाना बहुत ही कठिन था।इसके लिए जरूरी था कि देश के रहनुमा कड़े फैसले लेने वाले होते और अपना उदाहरण सकारात्मक रूप में लोगोंके सामने रख पाते।
जिन्ना इस कसौटी पर खरे नही उतर सके।
जिन्ना डावांडोल प्रकृति वाले नेता थे। विभाजन की घोषणा तक उन्हें पता नही था कि वो जो पाकिस्तान चाहते हैंवो कैसा होना चाहिए। उसे भारत से अलग होना है या एक ढीले ढाले संघ में रहना है उन्हें नही पता था उन्हें ये भीनही पता था कि पाकिस्तान में कौन कौन से इलाके रहने हैं। उन्हें बस पकिस्तान चाहिए था । पकिस्तान मिलजाने के बाद भी उसके भविष्य को लेकर उनके पास कोई कार्ययोजना नही थी। कभी मज़हब के आधार पर बने देशको वो सेकुलर बनाना चाहते थे तो कभी तरह तरह के अंदरूनी दबावों के आगे झुक झुक कर इधर उधर के फैसलेलेते रहे।
जिन्ना ने जिस एक चीज की नींव डाली-जो पाकिस्तान को अभी भी परेशान कर रही है- वह थी एकाधिकार कीप्रवृत्ति । जिन्ना को माउन्टबेटन ने सलाह दी कि उन्हें गवर्नर जनरल की जगह प्रधान मंत्री बनना चाहिए क्योंकिसंसदीय शासन की प्रणाली में प्रधान मंत्री अधिक महत्त्व पूर्ण होता है। परन्तु जिन्ना ने गवर्नर जनरल बनने केसाथ सत्ता अपने पास रखना चुना। जब शासन का ध्येय किसी तरह से सत्ता बचाए रखना और पूरी सत्ता अपने पासरखना हो जाता है तो चीजें ग़लत होनी शुरू हो जाती हैं । इस तरह की जवाबदेही विहीन सत्ता अन्य लोगों कोआकर्षित करती है।
जल्दी ही सत्ता खिसकनी शुरू हो गई। जिन्ना से लियाकत अली और फ़िर धीरे धीरे श्रंखला चल निकली। सेना काराजनीति के लिए प्रयोग हुआ और फ़िर सेना ने राजनीति शुरू कर दी।
२००७ के चुनावों के बाद ज़रदारी ने कहा कि वो पाकिस्तान के सोनिया गांधी बनना चाहते हैं । लेकिन सोनियागांधी बनना यूँ आसान नही था ज़ल्दी ही ज़रदारी एक और जिन्ना बन कर राष्ट्रपति बन बैठे। ज़रदारी के राष्ट्रपतिबनने के साथ ही उनके पराभव की कहानी शुरू हो चुकी थी। ये आश्चर्यजनक है कि वो अभी तक सत्ता में बने हुए हैं।
पाकिस्तान का उदहारण यह बताता है कि ग़लत बुनियाद का फल सही हो यह सम्भव नही है । अब देखना यहहोगा कि आगे आने वाले नेता इस चीज को समझ पाते हैं या नही।
जस्टिस चौधरी की बहाली के आगे क्या क्या परिणाम हो सकते हैं यह तो समय ही बताएगा पर आज कीपाकिस्तान की बुरी स्थिति की जिम्मेदारी अगर उसकी बुनियाद पर डाली जाय तो ग़लत नही होगा।
पाकिस्तान के निर्माण के लिए दिए गए तर्कों को अलग रख दें तो भी पाकिस्तान निर्माण के बाद शुरू से हीपकिस्तान के नेताओं ने जो परम्पराएं डालनी शुरू कर दीं वो आगे चल कर परेशानी का सबब बनने वाली ही थीं ।
मज़हब के आधार पर बने हुए देश में मज़हबी जूनून रखने वालों को सत्ता से अलग कर पाना बहुत ही कठिन था।इसके लिए जरूरी था कि देश के रहनुमा कड़े फैसले लेने वाले होते और अपना उदाहरण सकारात्मक रूप में लोगोंके सामने रख पाते।
जिन्ना इस कसौटी पर खरे नही उतर सके।
जिन्ना डावांडोल प्रकृति वाले नेता थे। विभाजन की घोषणा तक उन्हें पता नही था कि वो जो पाकिस्तान चाहते हैंवो कैसा होना चाहिए। उसे भारत से अलग होना है या एक ढीले ढाले संघ में रहना है उन्हें नही पता था उन्हें ये भीनही पता था कि पाकिस्तान में कौन कौन से इलाके रहने हैं। उन्हें बस पकिस्तान चाहिए था । पकिस्तान मिलजाने के बाद भी उसके भविष्य को लेकर उनके पास कोई कार्ययोजना नही थी। कभी मज़हब के आधार पर बने देशको वो सेकुलर बनाना चाहते थे तो कभी तरह तरह के अंदरूनी दबावों के आगे झुक झुक कर इधर उधर के फैसलेलेते रहे।
जिन्ना ने जिस एक चीज की नींव डाली-जो पाकिस्तान को अभी भी परेशान कर रही है- वह थी एकाधिकार कीप्रवृत्ति । जिन्ना को माउन्टबेटन ने सलाह दी कि उन्हें गवर्नर जनरल की जगह प्रधान मंत्री बनना चाहिए क्योंकिसंसदीय शासन की प्रणाली में प्रधान मंत्री अधिक महत्त्व पूर्ण होता है। परन्तु जिन्ना ने गवर्नर जनरल बनने केसाथ सत्ता अपने पास रखना चुना। जब शासन का ध्येय किसी तरह से सत्ता बचाए रखना और पूरी सत्ता अपने पासरखना हो जाता है तो चीजें ग़लत होनी शुरू हो जाती हैं । इस तरह की जवाबदेही विहीन सत्ता अन्य लोगों कोआकर्षित करती है।
जल्दी ही सत्ता खिसकनी शुरू हो गई। जिन्ना से लियाकत अली और फ़िर धीरे धीरे श्रंखला चल निकली। सेना काराजनीति के लिए प्रयोग हुआ और फ़िर सेना ने राजनीति शुरू कर दी।
२००७ के चुनावों के बाद ज़रदारी ने कहा कि वो पाकिस्तान के सोनिया गांधी बनना चाहते हैं । लेकिन सोनियागांधी बनना यूँ आसान नही था ज़ल्दी ही ज़रदारी एक और जिन्ना बन कर राष्ट्रपति बन बैठे। ज़रदारी के राष्ट्रपतिबनने के साथ ही उनके पराभव की कहानी शुरू हो चुकी थी। ये आश्चर्यजनक है कि वो अभी तक सत्ता में बने हुए हैं।
पाकिस्तान का उदहारण यह बताता है कि ग़लत बुनियाद का फल सही हो यह सम्भव नही है । अब देखना यहहोगा कि आगे आने वाले नेता इस चीज को समझ पाते हैं या नही।
शनिवार, 14 मार्च 2009
स्मृति ओढ़ता जीवन-कण!
वेदना के दंश से,
फिर मन हुआ अधीर|
ये शब्दों के सिलवट नहीं,
हैं मेरे नयनों के नीर|
शब्द बेधते, अचूक लक्ष्य कर,
धुआँ उगलती, बुझी बाती|
क्षण-भर का अभिमान धरा,
है क्षण-भर की मेरी थाती|
स्वयं नहीं जब समझे मुझको,
तो क्या?, लिख भेजूं पाती|
मेरा होना, ना होना,
जैसे बह चले समीर|
ये शब्दों के सिलवट नहीं,
हैं मेरे नयनों के नीर|
चंचल क्षण की स्मृति,
हुक-प्रसव-सा लिये वरण|
कैसी अबूझ पहेली अपनी,
स्मृति ओढ़ता जीवन-कण|
मेरी भाषा, क्या परिभाषा,
निशि-दिशी पावस का क्रंदन|
रक्तिम चक्षु, अश्रु विप्लव,
सन्दर्भ-शेष का सार रुदन|
मेरी भाग्य विधा है जैसे,
शिला पर खिंची लकीर|
ये शब्दों के सिलवट नहीं,
हैं मेरे नयनों के नीर|
फिर मन हुआ अधीर|
ये शब्दों के सिलवट नहीं,
हैं मेरे नयनों के नीर|
शब्द बेधते, अचूक लक्ष्य कर,
धुआँ उगलती, बुझी बाती|
क्षण-भर का अभिमान धरा,
है क्षण-भर की मेरी थाती|
स्वयं नहीं जब समझे मुझको,
तो क्या?, लिख भेजूं पाती|
मेरा होना, ना होना,
जैसे बह चले समीर|
ये शब्दों के सिलवट नहीं,
हैं मेरे नयनों के नीर|
चंचल क्षण की स्मृति,
हुक-प्रसव-सा लिये वरण|
कैसी अबूझ पहेली अपनी,
स्मृति ओढ़ता जीवन-कण|
मेरी भाषा, क्या परिभाषा,
निशि-दिशी पावस का क्रंदन|
रक्तिम चक्षु, अश्रु विप्लव,
सन्दर्भ-शेष का सार रुदन|
मेरी भाग्य विधा है जैसे,
शिला पर खिंची लकीर|
ये शब्दों के सिलवट नहीं,
हैं मेरे नयनों के नीर|
गुरुवार, 12 मार्च 2009
"प्रकृति के परिदृश्य का, परिहास करने आ गये..!"
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
सागर समीर बह चली,
अचला सुभाष करने आ गये
प्रभात किरण फुट रहा,
प्रत्यंग आलस टूट रहा
खग-कलरव कुल-कुल का,
प्रातः उपहास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
तान मुरली की बजी,
श्यामल सलोने गीत पर
गोपिओं के संग श्याम,
रास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
ओश की बूंदें सजी,
तृण के क्षीण-क्षीण पर
देख कर दिनकर दिवस,
अट्टहास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
चिल-चिलाती धुप में,
हुए कंठों से अधीर
धरा मिलन की आश में,
घटा प्यास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
अनुराग-अलौकिक राग में,
दंभ भरने लगी प्रिया
तो प्रियतम भी प्रेम का,
पिपास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
परिहास करने आ गये
सागर समीर बह चली,
अचला सुभाष करने आ गये
प्रभात किरण फुट रहा,
प्रत्यंग आलस टूट रहा
खग-कलरव कुल-कुल का,
प्रातः उपहास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
तान मुरली की बजी,
श्यामल सलोने गीत पर
गोपिओं के संग श्याम,
रास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
ओश की बूंदें सजी,
तृण के क्षीण-क्षीण पर
देख कर दिनकर दिवस,
अट्टहास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
चिल-चिलाती धुप में,
हुए कंठों से अधीर
धरा मिलन की आश में,
घटा प्यास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
अनुराग-अलौकिक राग में,
दंभ भरने लगी प्रिया
तो प्रियतम भी प्रेम का,
पिपास करने आ गये
प्रकृति के परिदृश्य का,
परिहास करने आ गये
सोमवार, 9 मार्च 2009
लोकसभा चुनावों में मेरा वोट
पिछले दिनों अपने गाँव गई तो मुझे पता चला कि मेरा नाम वहाँ की वोटर लिस्ट में शामिल है । मैंने तय किया कि लोकसभा चुनावों में मैं वोट करुँगी। इसके चलते मैंने पता करना शुरू किया फैजाबाद लोकसभा सीट से राजनैतिक दलों के प्रत्याशियों के नाम।
निवर्तमान लोकसभा में फैजाबाद लोकसभा सीट बसपा के पास थी और यहाँ से सांसद रहे मित्रसेन यादव। मित्रसेन यादव बाहुबली नेताओं में गिने जाते हैं और वो कम्युनिस्ट पार्टी, सपा, बसपा होते हुए अब फ़िर से सपा में आ गए हैं और उन्हें सपा ने यहाँ से टिकट दिया है। उन्हें वोट दे पाना मेरे लिए सम्भव नही ही है।
भाजपा ने अयोध्या के विधायक लल्लू सिंह को टिकट दिया है । लल्लू सिंह कि छवि ठीक ठाक रही है पर अयोध्या जाने वाला कोई भी इंसान ये बता सकता है कि इतने समय से विधायक रहने के बाद भी लल्लू सिंह ने अयोध्या के लिए कुछ ऐसा नही किया है जिसे देख कर उन्हें लोकसभा में भी भेजा जाय, वो भी तब जब वो जिस पार्टी से हैं उसकी राजनीति अयोध्या के बूते पर ही खड़ी हुई है। इतना तो है की भाजपा ने अयोध्या के साथ जितना हो सकता है उससे ज्यादा खिलवाड़ किया है। हो सकता है बाकी लोग सोच भी लें भाजपा और लल्लू सिंह को वोट देने को पर मैं तो नही ही सोच सकती हूँ।
बसपा ने अयोध्या के राजा विमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्र को फैजाबाद से टिकट दिया है । सुनने में आया है कि ये अच्छे प्रत्याशी हो सकते हैं ।
कांग्रेस ने फैजाबाद से अस्सी के दशक में सांसद रहे निर्मल खत्री को टिकट दिया है। निर्मल खत्री अच्छे नेताओं में गिने जाते हैं । फैजाबाद में उनके समय में विकास के काम भी हुए थे । राजनीति में रूचि रखने वाले लोगों के लिए वो राष्ट्रीय स्तर पर फैजाबाद के एक निर्विवादित चेहरे हैं।
अन्य प्रत्याशियों के बारे में अभी कोई ख़ास जानकारी नही है।
तो बसपा के विमलेन्द्र मिश्र और कांग्रेस के निर्मल खत्री में से चुनाव आसान दिखता है मेरे लिए। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार देखने के बाद ये समझ में आता है की राष्ट्रीय स्तर पर बसपा की सरकार बने ये देश के लिए बुरा ही होगा।
पिछले पाँच सालों के कांग्रेस सरकार के काम-काज से बहुत संतुष्टि न भी मिले तो भी यह उपलब्ध विकल्पों में श्रेष्ठतम है।
दल और प्रत्याशी दोनों को देखने और समझने के बाद निर्मल खत्री मुझे फैजाबाद से सबसे अच्छे उम्मीदवार नजर आ रहे हैं।
मैंने तय किया है की आने वाले चुनावों में मैं निर्मल खत्री को वोट दे रही हूँ और उम्मीद करुँगी की देश में अगली सरकार कांग्रेस की ही बने ।
निवर्तमान लोकसभा में फैजाबाद लोकसभा सीट बसपा के पास थी और यहाँ से सांसद रहे मित्रसेन यादव। मित्रसेन यादव बाहुबली नेताओं में गिने जाते हैं और वो कम्युनिस्ट पार्टी, सपा, बसपा होते हुए अब फ़िर से सपा में आ गए हैं और उन्हें सपा ने यहाँ से टिकट दिया है। उन्हें वोट दे पाना मेरे लिए सम्भव नही ही है।
भाजपा ने अयोध्या के विधायक लल्लू सिंह को टिकट दिया है । लल्लू सिंह कि छवि ठीक ठाक रही है पर अयोध्या जाने वाला कोई भी इंसान ये बता सकता है कि इतने समय से विधायक रहने के बाद भी लल्लू सिंह ने अयोध्या के लिए कुछ ऐसा नही किया है जिसे देख कर उन्हें लोकसभा में भी भेजा जाय, वो भी तब जब वो जिस पार्टी से हैं उसकी राजनीति अयोध्या के बूते पर ही खड़ी हुई है। इतना तो है की भाजपा ने अयोध्या के साथ जितना हो सकता है उससे ज्यादा खिलवाड़ किया है। हो सकता है बाकी लोग सोच भी लें भाजपा और लल्लू सिंह को वोट देने को पर मैं तो नही ही सोच सकती हूँ।
बसपा ने अयोध्या के राजा विमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्र को फैजाबाद से टिकट दिया है । सुनने में आया है कि ये अच्छे प्रत्याशी हो सकते हैं ।
कांग्रेस ने फैजाबाद से अस्सी के दशक में सांसद रहे निर्मल खत्री को टिकट दिया है। निर्मल खत्री अच्छे नेताओं में गिने जाते हैं । फैजाबाद में उनके समय में विकास के काम भी हुए थे । राजनीति में रूचि रखने वाले लोगों के लिए वो राष्ट्रीय स्तर पर फैजाबाद के एक निर्विवादित चेहरे हैं।
अन्य प्रत्याशियों के बारे में अभी कोई ख़ास जानकारी नही है।
तो बसपा के विमलेन्द्र मिश्र और कांग्रेस के निर्मल खत्री में से चुनाव आसान दिखता है मेरे लिए। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार देखने के बाद ये समझ में आता है की राष्ट्रीय स्तर पर बसपा की सरकार बने ये देश के लिए बुरा ही होगा।
पिछले पाँच सालों के कांग्रेस सरकार के काम-काज से बहुत संतुष्टि न भी मिले तो भी यह उपलब्ध विकल्पों में श्रेष्ठतम है।
दल और प्रत्याशी दोनों को देखने और समझने के बाद निर्मल खत्री मुझे फैजाबाद से सबसे अच्छे उम्मीदवार नजर आ रहे हैं।
मैंने तय किया है की आने वाले चुनावों में मैं निर्मल खत्री को वोट दे रही हूँ और उम्मीद करुँगी की देश में अगली सरकार कांग्रेस की ही बने ।

मंगलवार, 3 मार्च 2009
मौन! का अर्थ गौण
मौन!
का अर्थ,
दो आयामों में गौण!
मुर्खता का अंधकूप या,
ज्ञान की व्यापकता!
सीमा तय करते एक साथ,
दो राहे तक आते ही,
पहचान अलग-अलग
फैसले का गुबार,
अपनी ओर खींचता,
न जाने कितनी समझ को,
फिर समाज पैदा होता,
हाँथ-पैर के जन्म लेने से पहले
तंद्रा भंग होते ही,
क्रांति या विनाश
समाज की समझ,
और दिशाहीनता,
साथ-साथ सर पटकती,
परिणाम के चौखट पर
तभी उद्दवेग आपा खोकर,
दिखाई देने लगता,
कभी सड़क पर,
कभी बज़ार के सैकडों की भीड़ पर,
कभी संसद पर,
तो कभी माँ-बहनों की अस्मत पर
हित-अहित का पक्ष अपना है,
हर डाली झुकी है,
अपने ही फल के बोझ से
कर्म चिपटा है,
अतीत से वर्तमान के,
फ़ासलों को तय करता हुआ,
भविष्य के मुँह तक
मौन!
फलसफ़ा है,
आस्तीन को छुपाने का
और सुबह की मीठी धुप भी
का अर्थ,
दो आयामों में गौण!
मुर्खता का अंधकूप या,
ज्ञान की व्यापकता!
सीमा तय करते एक साथ,
दो राहे तक आते ही,
पहचान अलग-अलग
फैसले का गुबार,
अपनी ओर खींचता,
न जाने कितनी समझ को,
फिर समाज पैदा होता,
हाँथ-पैर के जन्म लेने से पहले
तंद्रा भंग होते ही,
क्रांति या विनाश
समाज की समझ,
और दिशाहीनता,
साथ-साथ सर पटकती,
परिणाम के चौखट पर
तभी उद्दवेग आपा खोकर,
दिखाई देने लगता,
कभी सड़क पर,
कभी बज़ार के सैकडों की भीड़ पर,
कभी संसद पर,
तो कभी माँ-बहनों की अस्मत पर
हित-अहित का पक्ष अपना है,
हर डाली झुकी है,
अपने ही फल के बोझ से
कर्म चिपटा है,
अतीत से वर्तमान के,
फ़ासलों को तय करता हुआ,
भविष्य के मुँह तक
मौन!
फलसफ़ा है,
आस्तीन को छुपाने का
और सुबह की मीठी धुप भी
रविवार, 1 मार्च 2009
पलाश के फूल

कुछ फूलों को डिजिटल रूप में परिवर्तित कर के आपके सामने पेश करने का लोभ भी था। कैमरा अच्छा नही था पर फोटो तो फोटो ही है न!
वैसे फूलों का उपयोग नाराज़ लोगों को मनाने के लिए भी किया जाता है , ये फूल नाराज़ लोगों को मनाने के लिए भी है ।
उम्मीद है जो नाराज़ हैं , गुस्सा थूक देंगे ।



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