बुधवार, 13 अगस्त 2008

स्वार्थ!

(इस प्रसंग के पात्र काल्पनिक नही हैं और वास्तविक जिन्दगी से उनका गहरा रिश्ता है। ये प्रसंग दिमाग में ऑरकुट पर एक स्क्रैप देख कर उपजा है।)
नीलू ने झटके से स्कूटी रोक दी अब वो कहीं दूर देख रही थी।
-दी! वो रही आपकी पंखुडी ब्लू सूट में। उन लोगो का क्लास ख़त्म हो गया है मै आपको उससे मिलवा दूँ?
नही मैं मिल लूँगी तुझे लेट हो रही होगी।-
हाँ वो तो है। अच्छा अब मै चलती हूँ। ये स्कूटी यही खड़ी कर देना और मुझे टाइम पर लेने आ जाना।
नीलू उछलते कूदते चल पड़ी अपने क्लास की ओर और मै रुक कर देखने लगी।तो ये है पंखुड़ी। मैने सोचा। मै स्कूटी पर ही बैठी रही. अचानक मुझे डर लगने लगा. अनिमेष कि बातें याद आने लगी. उसके अपने अंदाज में उसने सोचते हुए कहा था. शायद अच्छी लगती है पता नही पर मै बात बढ़ाना नही चाहता इसीलिए मैने आजतक उससे बात तक नही की है. वो अनिमेष जिसे मै चाहती थी और सोचती थी की कभी ना कभी उसके भी दिल में मेरे लिए ऐसा ही कुछ जागेगा, किसी और के प्रति आकर्षित था और उसकी आँखें कहती थी की ये आकर्षण कुछ ज़्यादा ही है.
मै क्यों मिलना चाहती थी पंखुड़ी से ये तो मुझे नही पता था पर उसे देख कर ऐसा लग रहा था की मै अनिमेष को खो ही चुकी हूँ। कितनी स्वीट दिख रही थी वो. मैने स्कूटी के शीशे में खुद को देखा. आँख मे जलन के भाव थे और मुझे अपना चेहरा अच्छा नही लगा।
वो एक और लड़की के साथ थी और अब एक पेड़ के गोल चबूतरे पर आ के दोनो बैठ गयीं। मैने साहस बटोरा और उसकी तरफ बढ़ गयी।
-एक्सक्यूस मी ये थर्ड ईयर बॉटेनी की क्लास कहाँ होती है?
मैने सीधे उसी से पूछा वो जैसे किसी सोच में थी उसके साथ की लड़की ने एक तरफ इशारा किया मैने उस दिशा में देखा तक नही।
-आप किस क्लास की हैं?
-थर्ड ईयर बॉटेनी
फिर साथ वाली लड़की ही बोली मैं थोड़ा झिझकी
- ये अनिमेष आपके ही क्लास में है ना? वो चला गया क्या?
अनिमेष नाम सुनते ही जैसे उसके कान खड़े हो गये दोनो मुझे एकदम से देखने लगीं।
-आपको अनिमेष से मिलना है?
साथ वाली लड़की ही बोली
-हाँ वो मेरा पुराना क्लासमेट है मै यहाँ आई थी तो सोचा की उससे मिल लूँ।
दोनों अभी भी मुझे घूर सी रही थी लगभग पंखुड़ी की आँखे कह रही थी कि इसे अनिमेष से कुछ मतलब तो ज़रूर है मेरा डर एकदम से पुख़्ता हो गया।
तू तो गयी बेटा। ये लड़की ले जाएगी अनिमेष को तुझसे छीन कर।
दोनो ने एक दूसरे को देखा। पंखुड़ी अब कुछ असहज सी थी। साथ वाली लड़की ही बोली फिर से
-वो आज नही आया है। शायद कही गया है
-मतलब शहर मे नही है?
- शहर में होता है तो कॉलेज ज़रूर आता है पर वो कल भी नही आया था।
ये पंखुड़ी गूंगी है क्या
मैने मन में सोचा। अब और पूछने को कुछ नही था मै भी अधिक असहज हुई जा रही थी।
- अच्छा थॅंक्स मै चलती हूँ।
मैंने बेमन से कहा मै मुड़ने को ही हुई तो अचानक एक दूसरी आवाज़ सुनाई दी।
- आपके पास उसका नंबर होगा पूछ लीजिए शायद हो ही शहर में
-ओह तो आप बोलती भी हैं
मैने मन मे सोचा
- असल में बहुत दिनो से हम मिले नही हैं तो नंबर भी नही है कोई। अगर आप के पास हो तो। वो बुरा नही मानेगा असल मे खुश ही होगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं।
दोनो फिर एकदुसरे को देखती रहीं
-प्लीज़ उसे मत बताइएगा कि हमने दिया है नंबर
पंखुड़ी झिझकते हुए बोली।
- आपने अपना नाम ही कहाँ बताया है जो मै उसे बता दूँगी कि आपने दिया है
मै मुस्कुराइ
- ओह मै पंखुड़ी और ये सोनाली
वो अपना बैग खोलते हुए बोली
- मतलब उसे बताना है कि नंबर पंखुड़ी और सोनाली ने दिया है
- ओह नही प्लीज़ मै तो आपको नाम बता रही थी उसे मत कहियेगा
उसका हाथ रुक गया और वो घबडा सी गयी
- ट्रस्ट मी वो बुरा नही मानेगा। लेकिन आप कह रहीं हैं तो मै उसे नही कहूँगी हाँ अगर आप लोग ही ना बता दें।
जिन लोगो ने कभी किसी को चाहा होगा वो जानते होंगे कि कब किसी का नाम सुनकर किसी के हाथ कापने लग जाते हैं कब और क्यों किसी के बारे में बात करने का मन भी करते है और बात हो भी नही पाती और कब किसी और के मूह से उसका नाम सुनकर और ये जान कर कि कोई और उसके बारे मे हमसे ज़्यादा जानता है दिल बेतहाशा धड़कने लगता है। मैने पंखुड़ी के सामने ही अनिमेष के घर फ़ोन किया मुझे पता था कि वो घर पर नही है पर पूछा और अपना संदेश छोड़ा। मुझे पता था कि अगर उसके मन मे अनिमेष के लिए कुछ होगा तो मुझे पता चल जाएगा। और पता चल गया। मै जान चुकी थी कि सिर्फ़ अनिमेष ही नही चाहता उसे बल्कि वो भी चाहती है अनिमेष को। मै उदास हो चली थी. मै जानती थी कि दोनो एक क्लास मे पढ़ते हैं और कभी ना कभी दोनो एक दूसरे कि फीलिंग्स जान ही जाएँगे और तब मै खो दूँगी अनिमेष को हमेशा के लिए. मै मनाती रही कि दोनो एक दूसरे से कुछ ना कह पाएँ. ये थर्ड ईयर है साल ख़त्म होते ही दोनो के लिंक्स टूट जाएँगे. काश!. मैने तय किया कि मै अनिमेष को अपनी रीडिंग नही बताने वाली. कहीं कोई अपना बुरा खुद करता है. क्या हुआ कि वो नही चाहता मुझे पर कल किसने देखा है.
कहते हैं कि कभी कभी आपकी ज़ुबान पर सरस्वती का वास होता है और आप जो भी कहते हैं सच हो जाता है. साल ख़त्म हो गया. दोनो एक दूसरे से कुछ नही कह पाए. और अलग हो गये. मै अक्सर अनिमेष से पंखुड़ी के बारे में पूछती रही और वो हंस के टालता रहा. पर जब आप किसी को सच्चे मन से चाहते हैं तो उसकी उदासी पढ़ सकते हैं. आज इतने दिनो बाद भी जब अनिमेष उसके बारे मे सुनकर हंस के टाल देता है तो मुझे अंदर से कुछ चुभता है कि मै दोनो कि फीलिंग्स जानती थी मै दोनो के लिए कुछ कर सकती थी पर मैने नही किया.मुझे सबसे बुरा तो तब लगा जब मैने ये पूरी बात अनिमेष को बताई. मै पढ़ सकती थी उसके मन में क्या है. पर उसने मुस्कुरा कर मुझे डांटा कि जबर्दस्ती मै आपने को दोषी क्यों मानती हूँ. वो मुझे समझना लगा कि वो खुद इस बात को वही पर रोकना चाहता था. कहते हैं कि सच्चा प्यार खुशी देता है स्वार्थी नही होता. जब स्वार्थ आ जाता है तो प्यार नही मिल पाता. सच मे नही मिला ना पंखुड़ी को ना अनिमेष को, खैर मुझे तो मिलना ही नही था

सोमवार, 11 अगस्त 2008

अभिनव ने जीता सोना

बिंद्रा ने जीता सोना !

निशाने बाज अभिनव बिंद्रा ने आज उस समय इतिहास रचा जब उन्होने भारत के लिए ओलिंपिक स्पर्धा की व्यक्तिगत श्रेणी मे पहला गोल्ड मेडल जीता।अभिनव ने ये मेडल १० मीटर एयर राइफ़ल स्पर्धा में जीता. उन्होने कुल ७००.५ अंको के साथ स्पर्धा मे पहला स्थान प्राप्त किया जबकि पूर्व ओलिंपिक गोल्ड मेडलिस्ट चीन के झू किनन दूसरे और फिनलॅंड के हकिनेन तीसरे स्थान पर रहे. अभिनव की इस उपलब्धि पर उन्हे बधाई।












शनिवार, 9 अगस्त 2008

हमारी भी बात

इस ब्लॉग पर हमारा ये पहला पोस्ट है। अपना ब्लॉग बंद करने के बाद रौशन का ब्लॉग हमारी पहली पसंद था और वैसे ही इस ब्लॉग के पास वर्ड्स हमारे पास पहले से ही थे. फिर भी उसे पूछना तो ज़रूरी ही था. तो पूछ लिया और उसे तो ना कहना ही नही था. सच तो है की वो ना तो कहता ही नही. वो ऐज यू विश बोल देता है और अगला मतलब निकालता रह जाए. हमने तो उसकी ऐज यू विश को हमेशा हा और चुप्पी को हमेशा ना न कहने की आदत के रूप मे जाना है।

हमारी ब्लॉग्स मे दिलचस्पी इधर थोड़े दिनो मे ज़्यादा बढ़ी है जब से हमने पाया कि देवनागरी में लिखना बड़ा आसान है. इधर कुछ और चीज़े हुईं जिन्होने काफ़ी काम आसान कर दिया. जैसे गूगल पर डॉक्युमेंट्स साझा करने कि सुविधा, क्विलपॅड और ब्लॉगर जैसी साइट्स पर हिन्दी टाइपिंग कि सुविधा और बढ़ता हुआ इंटरनेट का जाल. हमे याद है कि सालों पहले दिल्ली में साइबर केफे में रेट्स काफ़ी ज़्यादा हुआ करते थे अब ये लोगों कि पहुँच मे ज़्यादा आ रहे हैं. इंटरनेट कि वजह से सिटिज़न जर्नलिस्ट जैसे कॉन्सेप्ट भी बड़े लोकप्रिय हो रहे हैं और पढ़ने, बात करने और समझने के ज़्यादा अवसर मिल रहे हैं.

लब्बोलुआब यह है कि दुनिया छोटी हो के मुट्ठी मे आ रही है। लोग-बाग ब्लॉग्स में बहुत कुछ लिख रहे हैं. हमने देखा कि कविताओं, निजी डायरियों और अनुभवों की भरमार है. ये उन लोगों के हैं जो इंटरनेट कि वजह से अपने मन कि बात कह पाने मे ज़्यादा सक्षम हैं. समझ का एक विस्तार सा चल रहा है

ऐसे में हम क्या लिखें? कहने को तो बहुत कुछ या पर क्या सब कुछ कहा जा सकता है? वो ग़ालिब ने कहा है न


किसी को देके दिल कोई नवासंगे फुगा क्यों हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मूह में ज़ुबाँ क्यों हो


हम भी ग़ालिब की इज़्ज़त करते हैं लेकिन इसका ये मतलब तो नही कि सामने मौका और उंगलियों तले की बोर्ड हो और हम चूक जाएँ। अब हम कोई कवि तो हैं नही.आप बोलेंगे कि कवि तो बोलता है, कहता है और लिखता हैयही तो ग़लत फ़हमी है ये जो कवि और शायर वग़ैरह होते हैं ये बड़े गोल मोल टाइप के इंसान होते हैं. बातों को घुमा कर लोगो को गोल गोल घमाने में इनका कोई सानी नही. ये कोई बात इसलिए लिखते हैं कि कोई और बात छुपानी होती है.तो इस ब्लॉग में हमारे सहभागी रौशन के उलट हम जो कुछ लिखेंगे सच लिखेंगे, सच्ची जिंदगी से लिखेंगे और कविता तो बिल्कुल नही करेंगे. और इसका उदाहरण है अगला पोस्ट जो एक प्रसंग है और हमारे ब्लॉग पर था उसे हम यहाँ ले कर आ रहे हैं।

बाकी जल्दी ही

hamarivani

www.hamarivani.com