रविवार, 23 जुलाई 2017

झूठ का स्वर्णकाल

1949  में लिखी गयी  जॉर्ज ऑरवेल की किताब नाइन्टीन  एटी  फोर  सुव्यवस्थित तरीके से झूठ के प्रचार के तौर तरीकों के बारे में विस्तार से पूर्वाभास करती है।  
ऑरवेल ने एक दुनिया की कल्पना  की थी   जहां दुनिया तीन बड़े राष्ट्रों में बँट  चुकी है , तीनों महा-राष्ट्र बंद समाज हैं।  इन महा-राष्ट्रों  का नेतृत्व जनता को अतिराष्ट्रवाद की खुराक के सहारे अपने नियंत्रण में रखे हुए है.  व्यक्ति , उसके  रिश्ते , उसका जीवन यहां तक कि  उसका अस्तित्व और अतीत भी राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ चुका है और राज्य के सख्त पहरे में है. 
यहां अतीत की बात इसलिए महत्वपूर्ण  हो जाती है क्योकि व्यक्ति ख़त्म होने के बाद लोगों की स्मृतियों में रहते हैं विचार दबा भी दिए जाएँ तो कोने में पड़े रहते हैं और मौक़ा मिलने पर उभर आते हैं।  एक समझदार तानाशाह के लिए ये जरुरी होता है कि  वो लोगों की सोच ,समझ और विश्वासों पर शासन करे. अपनी पुस्तक द राज सिंड्रोम में सुहास चक्रवर्ती ब्रिटिश राज के तौर -तरीकों के बारे में जो कुछ बताते हैं वो दुनिया के हर राज का सच है. . 
नाइन्टीन एटी फोर पढ़ते समय हमें महसूस होता था कि यह सब कुछ सिर्फ बंद समाजों में ही चल सकता है. प्रचारकों के सहारे कैसे झूठ फैलाया और सच बनाया जाता है ये हमने देख रखा हुआ था. विद्यार्थी के रूप में हम देख चुके थे कि कैसे शुरुआत से ही मस्तिष्कों को अपने वश में करने की कोशिशें की जाती हैं. समर्पित कार्यकर्ता जो  कि समाज के संपन्न  तबके के लोग होते थे कैसे  रात के अंधेरों में धार्मिक उन्माद फैलाने वाले वीडियोज  के गुप्-चुप प्रदर्शन का बंदोबस्त करते थे ये किसी से छुपा हुआ नहीं है।  लेकिन ये सब बंद समाजों में ही संभव था ,
सूचना क्रान्ति और शिक्षा के विकास के बाद झूठ के प्रचारकों के लिए सबसे बड़ी समस्या आयी कि जानकारी के सर्वसुलभ हो जाने के बाद , ज्ञान के सर्वसुलभ हो जाने के बाद लगातार बेड़ियाँ तोड़ रहे समाज को वापस कैसे कैद किया जाय।  इंडिया शाइनिंग के आश्वस्त कर देने वाले प्रचार के झांसे में न पड़ने वाले समाज को कैसे बंद किया जाय. इंटरनेट ने तो हर मुँह को जुबान दे दी थी और हर मस्तिष्क को सोच का दायरा बढ़ाने का मौक़ा दे दिया था. 
यहां पर इन्होने अपनी रणनीति बदली. वास्तविक न सही आभासी बंधन बनाने की।  राष्टवाद और सूचना तकनीकि को साथ मिला कर एक मजबूत दीवार तैयार की गयी. इंटरनेट पर न्यूज़ वेबसाइटों का जाल , दृश्य श्रव्य माध्यमों पर कब्जा, फेसबुक /टविटर पर उपयोगकर्ताओं का जाल और मोबाईल फ़ोन पर व्हाट्सएप  ग्रुपों का जाल. . . अब लोगों को देखने , सुनने और पढ़ने के लिए चारों तरफ सिर्फ यही लोग मौजूद हैं।  मेरे पास दिन कम से कम दस वाट्सएप ऐसे ही लक्षित मैसेज आते हैं कभी कभी तो एक ही मैसेज दस दस बार. किसी व्यक्ति के पास जो सूचनाएं पहुँचती हैं उसकी सोच वैसे ही होती  जाती है. हर आदमी तो हर एक चीज क्रॉसचेक नहीं कर सकता है. 
इस घेराबंदी के बाद अब नाइन्टीन एटी  फोर  कल्पना नहीं रह गयी है. हमारा समाज हमें हर दिन उसी कृत्रिम उन्माद और गुलामी की और बढ़ता नजर आता है जिसकी कल्पना जॉर्ज ऑरवेल ने की थी. 

अभी कुछ दिन पहले रवीश कुमार ने फेक न्यूज़ पर एक स्टोरी करते हुए एक सवाल उठाया था कि आखिर जवाहर लाल नेहरू जिनके 2019 प्रधानमंत्री बनने की ज़रा भी संभावना नहीं है उनके ऊपर कीचड क्यों उछाला जा रहा है वो भी प्रधानमंत्री कार्यालय तक के आई पी से।  

जवाहर लाल नेहरू पर कीचड संघ  के अस्तित्व में आने के बाद से ही उछाला जा रहा है।  अभी इसमें तेजी की वजह वही पुरानी सोच है. किसी को ख़त्म करना है तो अतीत में जा के ख़त्म करो और आज उनके पास अधिक कारगर हथियार हैं।  

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