श्वे़त पर ज्यों,
श्याम बिखरें हैं,
यथावत!
श्लेष भावों के वरण में,
अन्तः का प्रकल्प लेकर|
नित्य प्रतिदिन,
मृत्यु करती है आलिंगन,
पुनर्जीवन के दंभ का संकल्प लेकर|
अट्टहास-सा क्रंदन समेटे,
बाहु-पाश में|
अलिप्त-सा,
अब लिप्त क्यूँ?
किसी अप्रयास में|
है विधि का चक्र ज्यों,
होना निष्प्राण|
श्रेष्ठ यही,
विष्मृत न हो,
जीवन-प्रमाण|
माध्य हूँ मैं कर्म का,
कर्त्तव्य-पथ पर|
गंतव्य से पहले मेरा,
वर्जित विश्राम|
हे मृत्यु! तू ही ले,
अपनी गति को थाम|
अभी नहीं करता तुम्हें,
अंतिम प्रणाम!
मोक्ष नहीं कि,
तू मिले,
अनायास मुझको|
सोच यह कि काल ने,
निगला मुझे है|
ग्रास हूँ मैं वक्र-सा,
सहज नहीं हूँ,
सृजन-बीज हूँ,
काल से डरता नहीं मैं|
तेरी अपनी पीड़ा,
तेरी अपनी हार का|
मैं तो रहा सदा वंचित,
तेरे अनगिन प्रहार का|
याचक नहीं कि स्वार्थवश,
बनूँ प्रार्थी!
क्यूंकि है अन्तरिक्ष स्वयं,
मेरा सारथी!
हे मृत्यु! तू ही ले,
अपनी गति को थाम|
अभी नहीं करता तुम्हें,
अंतिम प्रणाम!
माध्य हूँ मैं कर्म का,
जवाब देंहटाएंकर्त्तव्य-पथ पर|
गंतव्य से पहले मेरा,
वर्जित विश्राम|
बेहतरीन अभिव्यक्ति, सघन भाव
"याचक नहीं कि स्वार्थवश,
जवाब देंहटाएंबनूँ प्रार्थी!
क्यूंकि है अन्तरिक्ष स्वयं,
मेरा सारथी!"
यही संकल्प, यही दृढ़ भाव तो गौरव देता है ।
सुन्दर रचना । आभार ।
Hi friend,
जवाब देंहटाएं"तेरी अपनी पीड़ा,
तेरी अपनी हार का|
मैं तो रहा सदा वंचित,
तेरे अनगिन प्रहार का|
याचक नहीं कि स्वार्थवश,
बनूँ प्रार्थी!
क्यूंकि है अन्तरिक्ष स्वयं,
मेरा सारथी!"
Aapki poem bahut achhi hai. Mujhe ye panktiyan kafi achhi lagi. Ek rachna barbas yaad aa gayi, yahan daal rahi hun.
rgds.
यह न सोचो कल क्या हो
कौन कहे इस पल क्या हो
रोओ मत, न रोने दो
ऐसी भी जल-थल क्या हो
बहती नदी की बांधे बांध
चुल्लू मे हलचल क्या हो
हर छन हो जब आस बना
हर छन फ़िर निर्बल क्या हो
रात ही गर चुपचाप मिले
सुबह फ़िर चंचल क्या हो
आज ही आज की कहें-सुने
क्यो सोचे कल, कल क्या हो
रचनाकार: मीना कुमारी
इस रचना को आप लोगों के द्वारा दिये सभी उपमाओं का मैं स्वागत करता हूँ, और अपेक्षा करता हूँ कि आपलोगों की सराहना निरंतर मेरे रचनाधर्म को प्रवाह देती रहेंगीं| धन्यवाद!
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शुभकामनाओं समेत!
आपका शुभेक्षु!
"यायावर"