शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

राष्ट्रभाषा का तमगा मिले, तुम्हारी पैरवी करूँगा|

सुनो! तुम्हें आती है,
खिचड़ी पकानी,
अंग्रेजी और हिंदी की|
नहीं आती न?
अच्छा! अंग्रेजी में हिंदी,
या हिंदी में अंग्रेजी का,
चटपटा पकवान बनाकार,
गर्व से सीना चौड़ा करके,
उसे परोसना|
कुछ तो सीखा होगा तुमने....
नहीं सीखा?

तब तो तुम,
बिलकुल नहीं चल पाओगे,
और बचा भी नहीं पाओगे,
अपने बचे-खुचे अवशेष को|
महसूस किया है तुमने,
अंग्रेजी के उन्माद को|
जब कोई बेटा हिंदी में,
अंग्रेजी मिलाकर,
अपनी माँ से कहता है-
"माँ आज तुम बहुत सेक्सी लग रही हो"
हा..हा..हा..! उस वक़्त..! उस वक़्त..!
माँ भी वातशल्य को,
क्षण-भर भूल,
निहारने लगती है,
अपने सोलहवें सावन को|
अपने पुराने ढर्रे पर,
चिपों-चिपों करते हो|
क्या हुआ तुम्हारी जननी,
संस्कृत का?
जिसके गर्भ में,
अविर्भाव हुआ था तुम्हारा!
वह भी गायब हो गयी न,
गदहे की सिंघ की तरह|
बात करते हो साहित्य की?
चलो मनाता हूँ,
साहित्य दर्शन है,
लेकिन ये बताओ कि,
दर्शन का भी,
संगठन होता है क्या?
और होती हैं क्या?
इसकी भी प्रतियोगिताएँ,
अपने व्यक्तित्व को,
श्रेष्ठ प्रमाणित करने के लिये|
हिंदुस्तान में,
तुम्हें शुद्ध बोलने वाले कम,
और तुम्हारे नाम की,
रोटी खानेवाले ज्यादा हैं,
गौर किया है कभी तुमने?
वर्ण, जाति, धर्म और
परंपरा का संगठन,
या फिर कोई भी,
मनचाह संगठन,
जानते हो कब बनता है?
इसके भी व्यतिगत रूप से,
बहुत पहलू हैं,
अपने-अपने हिसाब से|
लेकिन मुझे,
जो पहलू मुख्य लगता है,
वह है उसके लोप होने का भय|
अच्छा ये बताओ...
सुना है तुमने कभी,
कि शेरों ने मिलकर,
गीदडों के खिलाफ,
बनाया हो संगठन|
हा! इतना ज़रूर है कि,
गीदड़ एक साथ मिलकर,
हुआं-हुआं करते हैं,
वो भी दिन में नहीं,
अमावस की रात में|
जानते हो,
तुम्हारी सबसे बड़ी,
विवशता क्या है?
तुम "एलीट" नहीं बन पाये|
तुम में कोई योगता नहीं,
कि तुम्हें राष्ट्रभाषा का,
तमगा मिले,
ये कैसे हो सकता है?
फिर भी मैं,
तुम्हारी पैरवी करूँगा|
कानूनी किताब में तुम,
हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा,
के नाम पर,
दर्ज कर दिए जाओगे|
लेकिन...
मेरे एक अंतिम प्रश्न,
का उत्तर दे दो|
यही तुम्हारी योग्यता,
मान बैठूँगा|
कहाँ से लाओगे,
अपने प्रेमियों को,
जो तुम में,
आस्था बनाये रखेंगे तबतक,
जबतक रहेगी ये सम्पूर्ण सृष्टी|
तुम चीटिंगबाज़ी करके,
दे सको अगर इसका उत्तर,
तो इस बात की भी,
तुम्हें छुट है....

5 टिप्‍पणियां:

  1. dear ,
    shudhatta-wadi lagate ho...
    jo ki ek nakali chez hai asali duniya me .

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  2. पहली बार कमेंटस लिखते हुये सोचना पड रहा है कि बधाई दूं तो कैसे दूं, देने को शब्‍द तो हैं परन्‍तु प्रतिक्रिया में भाषा का सम्‍मान कैसे बनाये रखूं, दुविधा में हूं इस लिये बात यहीं समाप्‍त करके बधाई लिखकर भाग लेता हूं

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  3. बेनामी जी! सादर नमस्कार...
    आपका परिचय स्पष्ट नहीं हो पा रहा है क्यूंकि "बेनामी" स्यवं क्या कहे...अपना-अपना मत है मैं किसी प्रकार का आक्षेप करना पसंद नहीं करूँगा...हाँ, इतना ज़रूर है शुद्धतावादी होने के साथ-साथ असली और नकली बातों का भी संज्ञान है मुझे....आपकी सलाह व्यर्थ ही है मेरे सन्दर्भ में...खैर आप अपने मत पर अडिग रहें....शायद बेनामी को नाम मिल जाये| अपना ख्याल रखें...

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  4. @बेनामी जी!

    Aapko apna name likhne mei sharm aa rahi thee? Aur ya fir dar lag raha tha ki ek kavi apni kavita ke madhyam se aap per kayamat dha sakta hai?

    Jab name likhne mei iitna darte hein to aap kavita ka arth kaise samajh payenge? Chaliye chodiye aap is asli duniya se bahut dare huye hein, aage se saahas karke aaiye fir tipanni apne name ke sath pure josh se kijiye.

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  5. कोशिश जारी है....
    वैसे हर जगह खिचडी ही तो मिल रही है.....

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hamarivani

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