तहलका की खोजी पत्रकारिता और सच तक पहुँचने की उसकी जिद के हम हमेशा से कायल रहें हैं. तहलका एक ऐसे स्तम्भ की भांति है जो आज पास की लहरों की चोटों से अनजान सच की खोज और उसको दुनिया के सामने लाने के लिए हमेशा लगा रहता है. इसी क्रम में तहलका की ताज़ी तहकीकात , वोट के बदले नोट कांड पर की तहकीकात पढ़ने को मिली. इसे विस्तार से आप भाग १ व भाग २ में पढ़ सकते हैं . यह तहकीकात विकिलीक्स में किसी छुटभैये सहयोगी की खुद को महत्वपूर्ण साबित करने की उत्कंठा से कही गई बातों से ज्यादा प्रमाणिक हैं .
जुलाई 2008 के अविश्वास प्रस्ताव के दौरान कई कुचक्र एक साथ काम कर रहे थे. कांग्रेस और उसके सहयोगियों के सरकार बचाने के कुचक्र, वाम दलों की ऐंठ की किसी तरह यह सरकार गिरा कर अपनी ताकत दिखायें , बसपा और भाजपा को सरकार गिरनेके बाद मिल सकने वाली गद्दी की आस और छिटपुट सांसदों को इस मौके में अधिक से अधिक फ़ायदा उठा लेने की आस.
भाजपा को समर्थन न देने की मजबूरी के बाद जब वाम दलों ने बसपा की और रुख किया तो भाजपा को नजर आने लगा कि बसपा तो अनायास ही लाभ की स्थिति में आ गयी. भाजपा उत्तर प्रदेश में बसपा को समर्थन दे कर उसकी कीमत भुगत चुकी है . भाजपा को उम्मीद थी कि केंद्र में वह अगुवाई करेगी और बसपा उसका समर्थन करेगी. पर यहां तो उसका उलटा हो रहा था . वामदलों की शह पर बसपा सरकार बनाने का सपना देखने लगी थी और इसी लिए सरकार गिराने की जोड़तोड़ में वह आगे निकलती नजर आने लगी. वाम दलों को शायद बसपा के खरीद-फरोख्त के तौर तरीके अच्छे नहीं लगे इसलिए अविश्वास प्रस्ताव के आखिरी मुकाम पर पहुँचते पहुँचते उसने संसद के बाहर की सक्रिय भागीदारी छोड़ कर खुद को संसदीय चर्चा तक ही सीमित कर लिया.
तहलका की तहकीकात खुलासा करती है, कि भाजपा सरकार के सामने किस तरह से चारे फेंकने में जुटी थी. भाजपा की पूरी कोशिश थी की बिकने को तैयार उसके नेताओं को किसी तरह कांग्रेस खरीदने में पकड़ी जाए और वह इस बात पर वाहवाही और फिर वोट समेटे . इसके लिए उसने बिकने को तैयार लोगों और दलालों को सक्रिय कर रखा था. इस अभियान को खुद भाजपा के प्रधानमन्त्री पद के दावेदार लाल कृष्ण आडवानी व कद्दावर नेता अरुण जेटली की देखरेख में चलाया जा रहा था.
इस तहकीकात के खुलासे के बाद वाजिब सवाल उठते हैं
इस तरह के बनाए हुए मामले में अगर भाजपा का उद्देश्य सिर्फ भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश ही था तो यह जानने के बाद वह कांग्रेस के किसी नेता को नहीं फंसा पायी है और उसके हाथ कुछ ख़ास नहीं लगा है तो उसने संसद नोट लहरा कर व्यर्थ में संसद की गरिमा क्यों गिराई और सुधीन्द्र कुलकर्णी , अरुण जेटली जैसों की भागीदारी की बात भाजपा ने क्यों नहीं स्वीकारी ?
जुलाई 2008 के अविश्वास प्रस्ताव के दौरान कई कुचक्र एक साथ काम कर रहे थे. कांग्रेस और उसके सहयोगियों के सरकार बचाने के कुचक्र, वाम दलों की ऐंठ की किसी तरह यह सरकार गिरा कर अपनी ताकत दिखायें , बसपा और भाजपा को सरकार गिरनेके बाद मिल सकने वाली गद्दी की आस और छिटपुट सांसदों को इस मौके में अधिक से अधिक फ़ायदा उठा लेने की आस.
भाजपा को समर्थन न देने की मजबूरी के बाद जब वाम दलों ने बसपा की और रुख किया तो भाजपा को नजर आने लगा कि बसपा तो अनायास ही लाभ की स्थिति में आ गयी. भाजपा उत्तर प्रदेश में बसपा को समर्थन दे कर उसकी कीमत भुगत चुकी है . भाजपा को उम्मीद थी कि केंद्र में वह अगुवाई करेगी और बसपा उसका समर्थन करेगी. पर यहां तो उसका उलटा हो रहा था . वामदलों की शह पर बसपा सरकार बनाने का सपना देखने लगी थी और इसी लिए सरकार गिराने की जोड़तोड़ में वह आगे निकलती नजर आने लगी. वाम दलों को शायद बसपा के खरीद-फरोख्त के तौर तरीके अच्छे नहीं लगे इसलिए अविश्वास प्रस्ताव के आखिरी मुकाम पर पहुँचते पहुँचते उसने संसद के बाहर की सक्रिय भागीदारी छोड़ कर खुद को संसदीय चर्चा तक ही सीमित कर लिया.
तहलका की तहकीकात खुलासा करती है, कि भाजपा सरकार के सामने किस तरह से चारे फेंकने में जुटी थी. भाजपा की पूरी कोशिश थी की बिकने को तैयार उसके नेताओं को किसी तरह कांग्रेस खरीदने में पकड़ी जाए और वह इस बात पर वाहवाही और फिर वोट समेटे . इसके लिए उसने बिकने को तैयार लोगों और दलालों को सक्रिय कर रखा था. इस अभियान को खुद भाजपा के प्रधानमन्त्री पद के दावेदार लाल कृष्ण आडवानी व कद्दावर नेता अरुण जेटली की देखरेख में चलाया जा रहा था.
इस तहकीकात के खुलासे के बाद वाजिब सवाल उठते हैं
इस तरह के बनाए हुए मामले में अगर भाजपा का उद्देश्य सिर्फ भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश ही था तो यह जानने के बाद वह कांग्रेस के किसी नेता को नहीं फंसा पायी है और उसके हाथ कुछ ख़ास नहीं लगा है तो उसने संसद नोट लहरा कर व्यर्थ में संसद की गरिमा क्यों गिराई और सुधीन्द्र कुलकर्णी , अरुण जेटली जैसों की भागीदारी की बात भाजपा ने क्यों नहीं स्वीकारी ?
Khel BJP ka to congress ko fasane ka lekin congress ki jagah amar singh jhaanse me aa gaye. Arun jetli aur advani ki koshish bekar gayi
जवाब देंहटाएंDoesnt matter which party, every leader is same
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सत्यवचन!
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