शशि, चन्द्र विलोचन नयन, मुख|
तोहे पदम् कदम मोहे भावत है||
चर-चारू कंद बदन तोरा|
मन मोरा हर्षय लावत है||
हरणी सी चलत इत-उत ठुमकत|
तोहे देख मोरा मन गावत है||
तोरे नयन कटारी चलत जिधर|
नव किरण कुञ्ज फैलावत है||
चलत पवन, पट सटत बदन|
मन-मन पवन कछु पावत है||
तोरे लट उलझे घट-पनघट|
बदरी घट-घट बरखावत है||
तोहे पायल की खन-खन,सुनी-सुनी|
रज,राग,रंग तंग ढ़ावत है||
चल सजनी आगे-आगे|
"अनुराग" पीछे से आवत है||
शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
हँस पडे मुँह खोल पत्ते....!
चरमराती सुखी डाली,
छोड़ उपवन रोये पत्ते|
जब अधर पर पाँव पड़ते,
कड़-कड़ाते बोले पत्ते|
धरा धीर धर अनमने से,
रोये मन टटोल पत्ते|
चिल-चिलाती धुप तपती,
जल गये हर कोर पत्ते|
वृक्ष की अस्थि ठिठुरती,
देख मातम रोए पत्ते|
फिर पथिक है ढूंढ़ता,
विश्राम के आयाम को|
देख कर परिदृश्य पागल,
हँस पडे मुँह खोल पत्ते|
छोड़ उपवन रोये पत्ते|
जब अधर पर पाँव पड़ते,
कड़-कड़ाते बोले पत्ते|
धरा धीर धर अनमने से,
रोये मन टटोल पत्ते|
चिल-चिलाती धुप तपती,
जल गये हर कोर पत्ते|
वृक्ष की अस्थि ठिठुरती,
देख मातम रोए पत्ते|
फिर पथिक है ढूंढ़ता,
विश्राम के आयाम को|
देख कर परिदृश्य पागल,
हँस पडे मुँह खोल पत्ते|
आपका यायावरी पर स्वागत है
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
तमिल में बोलने के लिए रहमान को बधाई !
स्लमडॉग को लेकर हमारी असहमतियां जो भी रही हों वो अभी भी हैं और इसे आस्कर मिलना न मिलना कोईमायने नही रखता हमारे लिए। एक आम सुबह की तरह न्यूज़ देखते हुए एक चीज बहुत अच्छी लगी वो थी रहमानका तमिल में बोलना ।
रहमान हमेशा से हमारे पसंदीदा संगीत निर्देशक रहे हैं और जहाँ भी उनका नाम जुड़ जाता है पक्का हो जाता है किवहां संगीत अच्छा ही होगा।
स्लमडॉग का संगीत कोई बहुत ख़ास नही था पर इसके लिए उन्हें आस्कर मिलने का मतलब है कि रहमान काऔसत संगीत भी विश्व स्तर पर औरों से बेहतर है . रहमान ने पुरस्कार लेते समय अपनी बात तमिल में रखी जोरहमान को और भी स्पेशल बना देती है ।
पुरस्कार लेते समय भाषा का चयन दिखाता है कि रहमान ख़ुद को अपनी मातृभाषा से जोड़ कर प्रस्तुत करनापसंद करते हैं। उनका "मेरे पास माँ है " का उल्लेख ये दिखाता है कि आस्कर पुरस्कारों में वो ख़ुद को भारतीयफ़िल्म उद्योग के एक प्रतिनिधि के रूप में रख रहे थे।
शायद यही जमीन से जुडाव और उस जुडाव की समुचित अभिव्यक्ति ही वो विशेषता है जो रहमान को नित नईरचनात्मंकता की क्षमता देती है ।
रहमान को बधाई न सिर्फ़ आस्कर के लिए बल्कि अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी
रहमान हमेशा से हमारे पसंदीदा संगीत निर्देशक रहे हैं और जहाँ भी उनका नाम जुड़ जाता है पक्का हो जाता है किवहां संगीत अच्छा ही होगा।
स्लमडॉग का संगीत कोई बहुत ख़ास नही था पर इसके लिए उन्हें आस्कर मिलने का मतलब है कि रहमान काऔसत संगीत भी विश्व स्तर पर औरों से बेहतर है . रहमान ने पुरस्कार लेते समय अपनी बात तमिल में रखी जोरहमान को और भी स्पेशल बना देती है ।
पुरस्कार लेते समय भाषा का चयन दिखाता है कि रहमान ख़ुद को अपनी मातृभाषा से जोड़ कर प्रस्तुत करनापसंद करते हैं। उनका "मेरे पास माँ है " का उल्लेख ये दिखाता है कि आस्कर पुरस्कारों में वो ख़ुद को भारतीयफ़िल्म उद्योग के एक प्रतिनिधि के रूप में रख रहे थे।
शायद यही जमीन से जुडाव और उस जुडाव की समुचित अभिव्यक्ति ही वो विशेषता है जो रहमान को नित नईरचनात्मंकता की क्षमता देती है ।
रहमान को बधाई न सिर्फ़ आस्कर के लिए बल्कि अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
कलम लेखको से लहू मांगती है!
अभी रिक्त भरना है! खाका चमन का,
नया रूप गढ़ना है! उजडे वतन का
पहाडो का दामन न छुए पडोसी,
सुला कर न गर्दन दबाये सपन का
सजाले पुजारी हृदय की उषा को,
धरा यह रवानी की बू मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
वतन के लिये ही कलम जन्मती,
समर्पण वतन के लिये जानती है
वतन के बिना शब्द रहते अधूरे,
वतन को कलम ज़िन्दगी मानती है
हवन हो रहा है युगों से वतन पर,
वतन की चिता ज़िन्दगी मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
प्रखर चेतना के नये गीत लेकर,
बहाती प्रवाहों की धारा धरा पर
क्षितिज लाल पूरब का करती कलम ही,
कुहासे की धूमिल घटाएँ हटा कर
विषम काल से जूझती है मगर अब,
शहादत की वेदी पे खू मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
कलम क्रांति का कर रही है आमंत्रण,
कलम शांति का कर रही है निमंत्रण
कलम काल का भाल रंगने चली है
चली है दमन पर अमन का ले चित्रण
कलम सर कलम कातिलो का करेगी,
कलम आँसुओं की दुआ मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
नया रूप गढ़ना है! उजडे वतन का
पहाडो का दामन न छुए पडोसी,
सुला कर न गर्दन दबाये सपन का
सजाले पुजारी हृदय की उषा को,
धरा यह रवानी की बू मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
वतन के लिये ही कलम जन्मती,
समर्पण वतन के लिये जानती है
वतन के बिना शब्द रहते अधूरे,
वतन को कलम ज़िन्दगी मानती है
हवन हो रहा है युगों से वतन पर,
वतन की चिता ज़िन्दगी मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
प्रखर चेतना के नये गीत लेकर,
बहाती प्रवाहों की धारा धरा पर
क्षितिज लाल पूरब का करती कलम ही,
कुहासे की धूमिल घटाएँ हटा कर
विषम काल से जूझती है मगर अब,
शहादत की वेदी पे खू मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
कलम क्रांति का कर रही है आमंत्रण,
कलम शांति का कर रही है निमंत्रण
कलम काल का भाल रंगने चली है
चली है दमन पर अमन का ले चित्रण
कलम सर कलम कातिलो का करेगी,
कलम आँसुओं की दुआ मांगती है
कलम लेखको से लहू मांगती है!
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का...!
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का,
चलो आसुओं को कफ़न से सजाने
जमी को उठाकर गगन पर बिठाने
सितारों की दूरी न दूरी रहेगी,
नहीं यह आज़ादी अधूरी रहेगी,
नये दीप को आंधिओं में जलाओ,
अंधेरा डगर है, अंधेरे शहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
अडे हैं पहाडों के पत्थर पुराने,
लहू से नहाये हैं इनके घराने,
मगर जिन्दगी जोखिमों की कहानी,
विन्धी-कंटकों में ही खिलती जवानी,
मसल पत्थरों को सृजन रह का कर,
बदलता नहीं ऐसे रुतबा कहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
सुलगती जवानी न चाहे जमाना,
धधकती जवानी से बदले जमाना,
जवानी तूफानों से झुकती नहीं है,
अगर बढ़ गई, तो फिर रूकती नहीं है,
चलो! देश रौशन बनाने चलो फिर,
बचे कोई सोया न प्राणी नगर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
वतन में वतन की नीलामी नहीं हो,
किसी को किसी की गुलामी नहीं हो,
नहीं पेट की आग अस्मत उधारे,
नहीं दर्द का राग कोई पुकारे,
बहो! ऐ हवाओं! फिजा मुस्कुराए,
नहीं कोई मौसम बुलाये ज़हर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
चलो आसुओं को कफ़न से सजाने
जमी को उठाकर गगन पर बिठाने
सितारों की दूरी न दूरी रहेगी,
नहीं यह आज़ादी अधूरी रहेगी,
नये दीप को आंधिओं में जलाओ,
अंधेरा डगर है, अंधेरे शहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
अडे हैं पहाडों के पत्थर पुराने,
लहू से नहाये हैं इनके घराने,
मगर जिन्दगी जोखिमों की कहानी,
विन्धी-कंटकों में ही खिलती जवानी,
मसल पत्थरों को सृजन रह का कर,
बदलता नहीं ऐसे रुतबा कहर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
सुलगती जवानी न चाहे जमाना,
धधकती जवानी से बदले जमाना,
जवानी तूफानों से झुकती नहीं है,
अगर बढ़ गई, तो फिर रूकती नहीं है,
चलो! देश रौशन बनाने चलो फिर,
बचे कोई सोया न प्राणी नगर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
वतन में वतन की नीलामी नहीं हो,
किसी को किसी की गुलामी नहीं हो,
नहीं पेट की आग अस्मत उधारे,
नहीं दर्द का राग कोई पुकारे,
बहो! ऐ हवाओं! फिजा मुस्कुराए,
नहीं कोई मौसम बुलाये ज़हर का
अभी है सवेरा तुम्हारे सफ़र का
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गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009
दूँढना हल शेष! अभी यारों...!
लड़ना है शेष! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
बेइमानों को आज़ादी है,
चाटुकारों के घर चाँदी है
बदकिश्मत मिहनत-कश जनता,
जनता के घर बर्बादी है
गढ़ना है देश! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
डंडेवालों का झंडा है,
धनवालों का हथकंडा है
मजलूमों को है कफ़न नहीं,
जीवन जीना ही फंदा है
मढ़ना है वेश! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
अस्मत दो नंबरवालों की,
किश्मत दो नंबरवालों की
बाकी की इज्ज़त बिक रही,
बदत्तर हालत श्रमवालों की
भरना है शेष! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
सब दो नंबर का भाषण है,
झूठा-झूठा आश्वासन है
मजबूर निगाहों में आँसू,
सोना-सा महँगा राशन है
जीना है शेष! अभी यारों
लड़ना है शेष! अभी यारों
छिना-झपटी है कुर्सी की,
सब खेल है खूनी कुर्सी की
भाई-भाई का कत्ल करे,
यह "फूट" करिश्मा कुर्सी की
बनना है एक! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
सत्ता की अदला-बदली है,
पर नीति बड़ी ही दोगली है
हालत बद-से, बदत्तर ही है,
जनता भी खूब ही पगली है
दूँढना हल शेष! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
बेइमानों को आज़ादी है,
चाटुकारों के घर चाँदी है
बदकिश्मत मिहनत-कश जनता,
जनता के घर बर्बादी है
गढ़ना है देश! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
डंडेवालों का झंडा है,
धनवालों का हथकंडा है
मजलूमों को है कफ़न नहीं,
जीवन जीना ही फंदा है
मढ़ना है वेश! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
अस्मत दो नंबरवालों की,
किश्मत दो नंबरवालों की
बाकी की इज्ज़त बिक रही,
बदत्तर हालत श्रमवालों की
भरना है शेष! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
सब दो नंबर का भाषण है,
झूठा-झूठा आश्वासन है
मजबूर निगाहों में आँसू,
सोना-सा महँगा राशन है
जीना है शेष! अभी यारों
लड़ना है शेष! अभी यारों
छिना-झपटी है कुर्सी की,
सब खेल है खूनी कुर्सी की
भाई-भाई का कत्ल करे,
यह "फूट" करिश्मा कुर्सी की
बनना है एक! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
सत्ता की अदला-बदली है,
पर नीति बड़ी ही दोगली है
हालत बद-से, बदत्तर ही है,
जनता भी खूब ही पगली है
दूँढना हल शेष! अभी यारों
बढ़ना है शेष! अभी यारों
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009
यहाँ कोई रोक-टोक नही है अभी
लखनऊ में कपूरथला चौराहा उन जगहों में शामिल है जहाँ हम कुछ दोस्त अक्सर मिला करते हैं । कपूरथलाचौराहे पर ख़ास बात युनिवर्सल बुक डिपो में है जहाँ का हिन्दी और और अंग्रेजी दोनों ही सेक्शन अच्छा है । एकऔर ख़ास बात नेस्कैफे के स्टाल में है जहाँ फुटपाथ और काफ़ी दोनों का आनंद एक साथ लिया जा सकता है ।
दो-तीन दिन पहले हम दो दोस्त युनिवर्सल बुक डिपो के दोनों सेक्शन छान कर नेस्कैफे के बगल काफ़ी ले कर बैठेतो अचानक सूखे मेवे लेकर फेरी लगाने वाला एक कश्मीरी दिख गया। हमें अंजीर और कश्मीर दोनों बहुत पसंद है। अंजीर तो उसके पास ख़त्म हो चुका था पर कश्मीर बाकी था । हम दोनों उसके साथ कश्मीर के बारे में बात करनेलगे।
कश्मीर के चुनाव के बाद अक्सर अलगाव वादी आरोप लगते रहे कि इन चुनावों में लोगो को जबरदस्ती वोट डालनेपर मजबूर किया गया था । हमने फैज़ल (उस कश्मीरी युवक का नाम फैज़ल था ) से पहली बात यही पूछी। फैज़लसे पता चला कि कश्मीर में पिछले कुछ टाइम में काफ़ी कुछ बदला है और लोग खुशहाल हुए हैं । नेताओं कोअंदाजा नही था कि लोग वोट डालना चाहते हैं उन्हें अंदाजा होता तो वो भी चुनाव लड़ते। हमें अच्छा नही लगा जबउसने कहा कि फौजी परेशान करते हैं पर याद किया तो समझ में आया कि फौज का व्यवहार नागरिकों के बीच मेंहमेशा कोई बहुत शानदार नही रहता है। ट्रेनों में उनका व्यवहार देख कर अगर हमें बुरा लगता है तो कश्मीरियों कोक्यों नही लग सकता ?
फैज़ल ने बताया कि अगर नए मुख्यमंत्री उमर अपने पिता फारुख की तरह रहते हैं तो लोगों में उपजा भरोसा ख़त्महो जायेगा । अगर थोड़ा भी अच्छा रहे तो इनको कोई हटा नही पायेगा ।
हमारे दोस्त ने पूछा कि लखनऊ में जो लोग मिलते हैं उनका व्यवहार कैसा लगता है तो उसने बिना लाग-लपेट केबता दिया कि अधिकतर लोग खुश होते हैं पर कुछ लोग कभी कभी उल्टा सीधा भी कहते हैं। हमने सोचा किआख़िर फेरी लगाने आए कश्मीरी उल्टा सीधा बोल कर किसी को क्या संतुष्टि मिलती होगी।
अंत में उसने एक बात कही जो हम जैसों को जो लखनऊ जैसी अपेक्षाकृत शांत जगह रहते हैं उन्हें कभी समझ मेंनही आ सकती है। उसने कहा कि लखनऊ में उसे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ कोई रोक टोक नही है चाहेजहाँ घूमो फिरो चाहे जितने देर तक घूमो फिरो।
हम सोचने लगे कि कैसा लगता होगा किसी भी जगह के रहने वालों को जब उन्हें आते जाते पूछा जाता होगा किकहा जा रहे हो कहाँ से आ रहे हो, कैसा लगता होगा जब शाम के एक निश्चित समय के बाद घर से बाहर निकलनावर्जित होता होगा, कैसा लगता होगा जब उनके अपने शहर में उनके अपने इलाके में औचित्य की जरुरत पड़तीहोगी कहीं रहने के लिए।
कैसा लगता होगा उन्हें जिन्हें अपने घर छोड़ कर कैम्पों में जिंदगी काटनी पड़ती होगी एक दो महीने , एक दो सालकश्मीरी पंडितों के लिए तो शायद एक दो पीढियां या और भी ज़ियादा।
फैज़ल ने बताया कि अभी भी टाइम लगेगा कश्मीरी पंडितों की वापसी में । उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि समस्या कासमाधान कश्मीरी पंडितों को जम्मू कैम्प से उठा कर श्री नगर के कैम्प में डालने में नही है। समस्या का समाधानहै उस स्थिति का निर्माण जिसमे कश्मीरी पंडित ख़ुद अपने आप अपने घरों में जा सकें। हम सहमत हैं उमर साहबपर बीस साल एक लंबा अरसा होता है । लोग निराश हैं।
क्या कश्मीरियों का भी फ़र्ज़ नही बनता था कि अपने ही भाइयों के हक़ में आगे बढ़ के बोलें। क्या लोग जमीन सेज्यादा कीमती हैं?
लेकिन लोग अपने वंचित भाइयों के बारे में नही सोचते।
कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों के लिए आन्दोलन नही छेड़ेंगे।
गुजरात के लोग सरदार सरोवर बाँध से तृप्त तो होंगे लेकिन नर्मदा के विस्थापितों के अधिकार की नही सोचेंगे। जोउनके अधिकारों को समर्थन देगा उसके ख़िलाफ़ गुंडागर्दी पर उतर आयेंगे (यहाँ हम कश्मीर और गुजरात के आमलोगों की बात कर रहे हैं नेताओं के समर्थक भावुक न हों )।
ओह कहाँ से शुरू किया था कहाँ आ गए । मुआफ कीजियेगा इधर उधर भटकने के लिए ये यहाँ सिर्फ़ इसलिए होपाया क्योकि अभी तक यहाँ भी कोई रोक टोक नही है कुछ भी करो कहीं भी भटको , कोई नही पूछता । कल इसतरह से मौका मिले न मिले ।
चलते-चलते : गुलज़ार साब ने फ़िल्म यहाँ के लिए एक गाना लिखा था पूछे जो कोई मेरी निशानी ।
उसमे एक लाइन है
आओ न आओ न जेहलम में बह लेंगे ।
कोई वादी के मौसम भी एक दिन तो बदलेंगे ॥
आमीन
दो-तीन दिन पहले हम दो दोस्त युनिवर्सल बुक डिपो के दोनों सेक्शन छान कर नेस्कैफे के बगल काफ़ी ले कर बैठेतो अचानक सूखे मेवे लेकर फेरी लगाने वाला एक कश्मीरी दिख गया। हमें अंजीर और कश्मीर दोनों बहुत पसंद है। अंजीर तो उसके पास ख़त्म हो चुका था पर कश्मीर बाकी था । हम दोनों उसके साथ कश्मीर के बारे में बात करनेलगे।
कश्मीर के चुनाव के बाद अक्सर अलगाव वादी आरोप लगते रहे कि इन चुनावों में लोगो को जबरदस्ती वोट डालनेपर मजबूर किया गया था । हमने फैज़ल (उस कश्मीरी युवक का नाम फैज़ल था ) से पहली बात यही पूछी। फैज़लसे पता चला कि कश्मीर में पिछले कुछ टाइम में काफ़ी कुछ बदला है और लोग खुशहाल हुए हैं । नेताओं कोअंदाजा नही था कि लोग वोट डालना चाहते हैं उन्हें अंदाजा होता तो वो भी चुनाव लड़ते। हमें अच्छा नही लगा जबउसने कहा कि फौजी परेशान करते हैं पर याद किया तो समझ में आया कि फौज का व्यवहार नागरिकों के बीच मेंहमेशा कोई बहुत शानदार नही रहता है। ट्रेनों में उनका व्यवहार देख कर अगर हमें बुरा लगता है तो कश्मीरियों कोक्यों नही लग सकता ?
फैज़ल ने बताया कि अगर नए मुख्यमंत्री उमर अपने पिता फारुख की तरह रहते हैं तो लोगों में उपजा भरोसा ख़त्महो जायेगा । अगर थोड़ा भी अच्छा रहे तो इनको कोई हटा नही पायेगा ।
हमारे दोस्त ने पूछा कि लखनऊ में जो लोग मिलते हैं उनका व्यवहार कैसा लगता है तो उसने बिना लाग-लपेट केबता दिया कि अधिकतर लोग खुश होते हैं पर कुछ लोग कभी कभी उल्टा सीधा भी कहते हैं। हमने सोचा किआख़िर फेरी लगाने आए कश्मीरी उल्टा सीधा बोल कर किसी को क्या संतुष्टि मिलती होगी।
अंत में उसने एक बात कही जो हम जैसों को जो लखनऊ जैसी अपेक्षाकृत शांत जगह रहते हैं उन्हें कभी समझ मेंनही आ सकती है। उसने कहा कि लखनऊ में उसे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ कोई रोक टोक नही है चाहेजहाँ घूमो फिरो चाहे जितने देर तक घूमो फिरो।
हम सोचने लगे कि कैसा लगता होगा किसी भी जगह के रहने वालों को जब उन्हें आते जाते पूछा जाता होगा किकहा जा रहे हो कहाँ से आ रहे हो, कैसा लगता होगा जब शाम के एक निश्चित समय के बाद घर से बाहर निकलनावर्जित होता होगा, कैसा लगता होगा जब उनके अपने शहर में उनके अपने इलाके में औचित्य की जरुरत पड़तीहोगी कहीं रहने के लिए।
कैसा लगता होगा उन्हें जिन्हें अपने घर छोड़ कर कैम्पों में जिंदगी काटनी पड़ती होगी एक दो महीने , एक दो सालकश्मीरी पंडितों के लिए तो शायद एक दो पीढियां या और भी ज़ियादा।
फैज़ल ने बताया कि अभी भी टाइम लगेगा कश्मीरी पंडितों की वापसी में । उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि समस्या कासमाधान कश्मीरी पंडितों को जम्मू कैम्प से उठा कर श्री नगर के कैम्प में डालने में नही है। समस्या का समाधानहै उस स्थिति का निर्माण जिसमे कश्मीरी पंडित ख़ुद अपने आप अपने घरों में जा सकें। हम सहमत हैं उमर साहबपर बीस साल एक लंबा अरसा होता है । लोग निराश हैं।
क्या कश्मीरियों का भी फ़र्ज़ नही बनता था कि अपने ही भाइयों के हक़ में आगे बढ़ के बोलें। क्या लोग जमीन सेज्यादा कीमती हैं?
लेकिन लोग अपने वंचित भाइयों के बारे में नही सोचते।
कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों के लिए आन्दोलन नही छेड़ेंगे।
गुजरात के लोग सरदार सरोवर बाँध से तृप्त तो होंगे लेकिन नर्मदा के विस्थापितों के अधिकार की नही सोचेंगे। जोउनके अधिकारों को समर्थन देगा उसके ख़िलाफ़ गुंडागर्दी पर उतर आयेंगे (यहाँ हम कश्मीर और गुजरात के आमलोगों की बात कर रहे हैं नेताओं के समर्थक भावुक न हों )।
ओह कहाँ से शुरू किया था कहाँ आ गए । मुआफ कीजियेगा इधर उधर भटकने के लिए ये यहाँ सिर्फ़ इसलिए होपाया क्योकि अभी तक यहाँ भी कोई रोक टोक नही है कुछ भी करो कहीं भी भटको , कोई नही पूछता । कल इसतरह से मौका मिले न मिले ।
चलते-चलते : गुलज़ार साब ने फ़िल्म यहाँ के लिए एक गाना लिखा था पूछे जो कोई मेरी निशानी ।
उसमे एक लाइन है
आओ न आओ न जेहलम में बह लेंगे ।
कोई वादी के मौसम भी एक दिन तो बदलेंगे ॥
आमीन
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या...!
शर्म नही आती इन राजनेताओं को अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने में! अपनी मातृ संस्कृति - सभ्यता कीबोली लगाने में! अपनी ओछी महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए धर्म को हथियार बनाने में! देश भक्ति के नाम अपनीग़लत शक्ति की मनमानी करने में! वेश्यावृति करने में, और अपने पुरुषत्व पर! अरे हाँ, मैं भूल गयी थी कि इनकेपास सारी संपत्ति तो है, लेकिन लज़्ज़ा की संपत्ति के मामले में कंगाल हैं! "बोया पेड़ बबुल का तो आम कहाँ से होये?” ये संपत्ति ना उधार ली जा सकती है, ना ही दी जा सकती है। इसे तो अपने बुद्धि विवेक से अर्जित किया जाताहै, और यही परिपक्वता है समाज़ की, राष्ट्र की, व्यक्ति की, और पूरे विश्व की!
अगर उम्र के पड़ाव को पार करने से ही परिपक्वता आती है, तो मुझे खेद है कुछ हिन्दी ब्लॉंगर्स पर जो उम्र के अवसान पर हैं, लेकिन इतना भी संज्ञान नही है कि वो अपने ब्लॉग में क्या और कैसी चीज़ों को तस्वीरों के साथ परोस रहे हैं! वो ये कैसे भूल जाते हैं कि उनकी पीढ़ियाँ भी कल उनका ब्लॉग पढ़ेंगी? कितने शर्मनाक तरीके से पोस्ट लिखे जा रहे हैं, और बहिष्कार कर रहे हैं। बहिष्कार कीजिए! शौक से कीजिए! लेकिन थोड़ा लिहाज़ करना भी ज़रूरी है! कलम में समाज़ को सशक्त बनाने की ताक़त होती है, कृपया राजनेताओं की तरह संस्कृति की बोली मत लगाइए, बल्कि युग निर्माण में सकारात्मक भागीदारी निभाएँ.
"नाच न जाने आँगन टेढ़ा!" अपने व्यक्तित्व का निर्माण तो कर नही सकते, और चले आते हैं राष्ट्र निर्माण का राग अलापने! इन्हें किसने हक़ दिया है क़ानून को अपने हाथ में लेने का? समस्या है तो समाधान भी है, लेकिन ये किसी का अधिकार नही बनता कि वो किसी पर हाथ उठाए। बंदर की तरह उछल कूद करने से अच्छा है कि एक सभ्य इंसान की तरह, सभ्यता की राह पर चलकर भी हालातों को बदला जा सकता है!
मेरी समझ से मुद्दा ये है कि समाज में कुछ ग़लत हो रहा है, और उसमें कैसे बदलाव लाना है इस पर कोई बात नहीहो रही. क्या एक ग़लत कदम को रोकने के लिए फिर दूसरे ग़लत कदम का उठाया जाना ही समस्या का समाधानहै? जिन्हें इस बात का आभास है कि वो समाज़ को एक नयी सकारात्मक दिशा दे सकते हैं, अगर वे समस्या केसमाधान पर पहल कर सकते हैं तो मैं उनके विचारों को आमंत्रित करती हूँ!
नोट: - ।samaylive.com/news/brosis-beaten-up-by-bajrang-dal-activists/608632.html">http://www।samaylive.com/news/brosis-beaten-up-by-bajrang-dal-activists/608632.html
http://rewa.wordpress.com/2009/02/15/padhe-likhe-ko-farsi-kya/
अगर उम्र के पड़ाव को पार करने से ही परिपक्वता आती है, तो मुझे खेद है कुछ हिन्दी ब्लॉंगर्स पर जो उम्र के अवसान पर हैं, लेकिन इतना भी संज्ञान नही है कि वो अपने ब्लॉग में क्या और कैसी चीज़ों को तस्वीरों के साथ परोस रहे हैं! वो ये कैसे भूल जाते हैं कि उनकी पीढ़ियाँ भी कल उनका ब्लॉग पढ़ेंगी? कितने शर्मनाक तरीके से पोस्ट लिखे जा रहे हैं, और बहिष्कार कर रहे हैं। बहिष्कार कीजिए! शौक से कीजिए! लेकिन थोड़ा लिहाज़ करना भी ज़रूरी है! कलम में समाज़ को सशक्त बनाने की ताक़त होती है, कृपया राजनेताओं की तरह संस्कृति की बोली मत लगाइए, बल्कि युग निर्माण में सकारात्मक भागीदारी निभाएँ.
"नाच न जाने आँगन टेढ़ा!" अपने व्यक्तित्व का निर्माण तो कर नही सकते, और चले आते हैं राष्ट्र निर्माण का राग अलापने! इन्हें किसने हक़ दिया है क़ानून को अपने हाथ में लेने का? समस्या है तो समाधान भी है, लेकिन ये किसी का अधिकार नही बनता कि वो किसी पर हाथ उठाए। बंदर की तरह उछल कूद करने से अच्छा है कि एक सभ्य इंसान की तरह, सभ्यता की राह पर चलकर भी हालातों को बदला जा सकता है!
मेरी समझ से मुद्दा ये है कि समाज में कुछ ग़लत हो रहा है, और उसमें कैसे बदलाव लाना है इस पर कोई बात नहीहो रही. क्या एक ग़लत कदम को रोकने के लिए फिर दूसरे ग़लत कदम का उठाया जाना ही समस्या का समाधानहै? जिन्हें इस बात का आभास है कि वो समाज़ को एक नयी सकारात्मक दिशा दे सकते हैं, अगर वे समस्या केसमाधान पर पहल कर सकते हैं तो मैं उनके विचारों को आमंत्रित करती हूँ!
नोट: - ।samaylive.com/news/brosis-beaten-up-by-bajrang-dal-activists/608632.html">http://www।samaylive.com/news/brosis-beaten-up-by-bajrang-dal-activists/608632.html
http://rewa.wordpress.com/2009/02/15/padhe-likhe-ko-farsi-kya/
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
कमेन्ट मोडरेशन को तानाशाही मानने वाले विरोध के तरीके का मोडरेशन करना चाहते हैं
नोटपैड नामक ब्लॉग पर सुजाता जी ने एक बड़ी ही सार्थक पहल की - बहस का फोकस तय करना । उन्होंने जो कुछ कहा है वह बहुत ही सटीक है मेरा उसे यहाँ दुहराने का कोई मन नही है । एक ही चीज बार बार पढाने से क्या फायदा।
वहीँ से लिंक मिला एक और ब्लॉग का जहाँ निशा के विरोध के तरीके पर सवाल उठाया गया था । सवाल तो वो बहुत से उठाते हैं पर मुझे याद आया की कुछ दिन पहले इन्होने जोरदार ढंग से कमेन्ट मोडरेशन को तानाशाही काप्रतीक बताया था । वो अपने ब्लॉग पर कमेन्ट मोडरेशन नही करते होंगे। पर दूसरों के तरीकों का मोडरेशन करनाचाहते हैं। चाहते हैं की स्त्रियाँ एक सीमा का अनुसरण करें, चाहते हैं की विरोध करना ही है तो उनसे सीख लें ।
भले ही वो विरोध का तरीका वही पुरुषोचित तरीका हो जिसका उन्होंने भी विरोध किया है (?)
शायद उनके लिए कमेन्ट आम आजादी से बड़ी चीज है ।
सुजाता जी ने सही ही कहा है कि बहस का फोकस तय होना चाहिए। मोडरेशन वाली तानाशाही के विरोधी औरउनका समूह इस पूरी चर्चा को हाइजैक करके संस्कृति वगैरह से जोड़ना चाहता हो । जिन्हें महिलाओं के इस विरोधसे परेशानी है उनके पास चारा ही यही है संस्कृति की दुहाई देना , सवाल उठाने वालों पर उँगलियाँ उठाना औरउनकी जानकारियों पर सवाल उठाना ।
बहस का फोकस लगातार शराब , पब, पेज थ्री की और खींचने की कोशिश हो रही है
शायद उन्हें आजादी सहन नही वो भी महिलाओं की ?
वहीँ से लिंक मिला एक और ब्लॉग का जहाँ निशा के विरोध के तरीके पर सवाल उठाया गया था । सवाल तो वो बहुत से उठाते हैं पर मुझे याद आया की कुछ दिन पहले इन्होने जोरदार ढंग से कमेन्ट मोडरेशन को तानाशाही काप्रतीक बताया था । वो अपने ब्लॉग पर कमेन्ट मोडरेशन नही करते होंगे। पर दूसरों के तरीकों का मोडरेशन करनाचाहते हैं। चाहते हैं की स्त्रियाँ एक सीमा का अनुसरण करें, चाहते हैं की विरोध करना ही है तो उनसे सीख लें ।
भले ही वो विरोध का तरीका वही पुरुषोचित तरीका हो जिसका उन्होंने भी विरोध किया है (?)
शायद उनके लिए कमेन्ट आम आजादी से बड़ी चीज है ।
सुजाता जी ने सही ही कहा है कि बहस का फोकस तय होना चाहिए। मोडरेशन वाली तानाशाही के विरोधी औरउनका समूह इस पूरी चर्चा को हाइजैक करके संस्कृति वगैरह से जोड़ना चाहता हो । जिन्हें महिलाओं के इस विरोधसे परेशानी है उनके पास चारा ही यही है संस्कृति की दुहाई देना , सवाल उठाने वालों पर उँगलियाँ उठाना औरउनकी जानकारियों पर सवाल उठाना ।
बहस का फोकस लगातार शराब , पब, पेज थ्री की और खींचने की कोशिश हो रही है
शायद उन्हें आजादी सहन नही वो भी महिलाओं की ?
बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
डंडा और झंडा
लखनऊ में एक राजनैतिक दल का लोकसभा प्रत्याशी काफ़ी दिनों से जम के प्रचार में जुटा हुआ है । उसके झंडे और बैनर देख कर महीनो से लग रहा है कि लोकसभा चुनाव हफ्ते भर में ही है। पता नही इस तरह पानी की तरह बहाए जा रहे पैसे को चुनाव आयोग उम्मीदवार के चुनाव खर्च में मानेगा या नही । सोचने वाली बात यह है जो चुनाव के एक साल पहले से चुनावी तौर तरीके से प्रचार में पैसा बहा रहा है उसने वो पैसा कमाया कैसे होगा ।
खैर!
दो दिन पहले हम सब्जी खरीद रहे थे तो हमने पाया कि पूरी सब्जी मण्डी में उसी प्रत्याशी के झंडे और बैनर हुए हैं।
हमने सब्जी वाले से पूछा कि बहुत बैनर लगा रखे हैं भाई! तो उसने बताया कि पार्टी वाले दे गए थे तो लगाना मजबूरी है । हमने पूछा कि ऐसी क्या मजबूरी है । तो पास वाले सब्जी वाले ने कहा कि जिसके हाथ में पुलिस है उसके बैनर लगना मजबूरी ही है भैया।
ऐसे चल रहा है उन महोदय का प्रचार
आख़िर डंडे के सहारे ही लगता है झंडा !
खैर!
दो दिन पहले हम सब्जी खरीद रहे थे तो हमने पाया कि पूरी सब्जी मण्डी में उसी प्रत्याशी के झंडे और बैनर हुए हैं।
हमने सब्जी वाले से पूछा कि बहुत बैनर लगा रखे हैं भाई! तो उसने बताया कि पार्टी वाले दे गए थे तो लगाना मजबूरी है । हमने पूछा कि ऐसी क्या मजबूरी है । तो पास वाले सब्जी वाले ने कहा कि जिसके हाथ में पुलिस है उसके बैनर लगना मजबूरी ही है भैया।
ऐसे चल रहा है उन महोदय का प्रचार
आख़िर डंडे के सहारे ही लगता है झंडा !
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
वहाँ एक कुत्ता था

- तुम्हे रास्ता याद है न?
उसकी आवाज से साफ़ था कि उसे लग रहा है कि हम रास्ता भूल गए हैं।
-रास्ता याद तो नही है पर एक निशानी है मोड़ की।
हमने उसे आश्वस्त किया और फ़िर किनारे गौर से देखने लग गए।
- क्या निशानी थी?
हम उसे अनसुना कर के रास्ते के किनारे देखते रहे।
- आख़िर निशानी थी क्या ?
इस बार उसके स्वर झुंझलाहट थी । हमें भी लगा कि बता ही दें उसके बाद जैसा उसे लगे ये उसकी सोच है।
- मोड़ के पास एक कुत्ता लेटा था ।
- क्या? ये भी कोई निशानी हुई? तुम्हे कोई बोर्ड, कोई और निशानी नही मिल पायी?
- हमें कुत्ता दिखा तो वो निशानी हमने मान ली । कुत्ता बड़े आराम से लेटा था ।
आगे एक मोड़ के पास पहुँच कर हमने हल्का सा ब्रेक लिया और मोड़ पर बाइक घुमा ली ।
- कुता?
- दरअसल जब हम मुडे तो आगे दो कुत्तों ने लड़ना शुरू किया था । तुम्हे तो पता ही है कि जब कुत्ते लड़ते हैं तो आसपास के सारे कुत्ते वहीँ पहुँच जाते हैं । ये हमारा वाला कुत्ता भी वहीँ चला गया होगा।
- तो तुम किस आधार पर इधर मुड गए ?
- तुम सवाल बहुत पूँछते हो। अच्छा देखो कभी भी जब कोई कुत्ता बैठता है कहीं तो वहां थोडी मिटटी हटाता है जबवो उठ जाता है तो वहाँ एक हल्का सा गड्ढा सा रहता है । इस मोड़ पारा हमारे उस कुत्ते ने भी गड्ढा छोड़ा हुआ था ।बस वही देख कर हम मुड गए ।
अब वो बिल्कुल चिढा हुआ था।
- तुम कभी कोई सही लोंजिक क्यों नही इस्तेमाल कर सकते । उस मोड़ पर एक ट्रांसफार्मर था । आगे एक जूस का ठेला था। तुम्हे ये सब छोड़ कर वहीँ कुत्ता ही नजर आया था?
- यार कुत्ता ही नजर आया तो क्या किया जाय? अब देखो हम सही रास्ते पर आ गए हैं यहाँ आगे ही उसका घर है। क्यों न चाय पी लें।
उसके मौन का मतलब उसकी सहमति से लिया हमने । आगे चाय की दो झुग्गीनुमा दुकाने थीं। उनके बीच में बाइक रोक ली।
वो जारी था।
- चाहे हम सही दिशा में ही आ गए पर ये ग़लत लोंजिक बार बार नही चलते। तुम्हे अपने सोचने के तरीके में बदलाव लाना चाहिए। अब वही दूकान क्यों?
दूकान पर ज्यादा लोग थे चाय पी रहे थे अगली दूकान पर दो लोग थे उनके हाथ में चाय नही थी।
- देखो पीछे वाली दूकान पर चाय बनी हुई है और लोग पी रहे हैं। हम पहुँचते हैं तो हमें भी वही चाय पकडा देगा जो पहले से बनी है और आगे वाली दूकान पर उन दो लोगों को चाय अभी भी नही मिली है मतलब अभी वो चाय बना ही रहा है । हमें बिना बकवास किए ताजा बनी चाय मिलेगी । तुम्हे तो पता ही है कि अगर चाय पहले से बनी है तो चाय वाले ताजा चाय बनने से पहले कितनी बहस कर डालते हैं।
अब उसके चेहरे पर संतोष था ।
- अब ये होता है सही लोंजिक । ऐसा नही है कि तुम सही लोंजिक इस्तेमाल करना नही जाने पर उल्टे सीधे लोंजिक ले आते हो जिससे हमें गुस्सा लगती है।
अपनी तारीफ, थोडी ही सही अच्छी लगी।
- यार इसमे ग़लत सही लोंजिक क्या! जूस का ठेला देखा होता तब भी यहीं पहुँचते , ट्रांसफार्मर देखा होता तब भी यहीं पहुँचते और कुत्ता देखा तब भी यहीं पहुंचे। मतलब पहुँचने से है या निशानी से?
- लेकिन वहाँ कुत्ता था ये कौन सी निशानी हुई भला?
चाय वाला चाय छान रहा था । उसमे से भाप निकल रही थी हम उसे देखने में बिजी हो गए । चाय की महक वाकई शानदार थी।
अब चाय छन चुकी थी । चाय वाला उसे गिलास में पलट कर ला रहा था। अब हमने उसकी आंखों में झांका और उसे चिढाने के लहजे में मुस्कुरा कर कहा
- तुमने वो कुत्ता नही देखा था वो बहुत शानदार लग रहा था सोते हुए।
वो गुस्से में कुछ कहने को ही था कि हमने उसकी तरफ़ चाय का गिलास बढ़ा दिया ।
रविवार, 1 फ़रवरी 2009
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