रविवार, 16 नवंबर 2008

आपसी सामंजस की ज़रूरत है!

मैं नारी और पुरुष के आपसी सामंजस की बात कर रही हूँ, और दोनों को एक ही धुरी पर चलने की बात कर रही हूँ. मैं भूत के आधार पर वर्तमान की बात ना कर, बल्कि भविष्य के बारे में सोच, उसे आधार मानकर वर्तमान में बात कर रही हूँ. आने वाले पीढ़ी के बारे में सोच आज को सकारात्मक रूप देने का प्रयास दिमाग़ में रख उसके बारे में चर्चा कर रही हूँ. यह कहना अतिशयोक्ति नही होगा कि नारी और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक दूसरे के बिना समाज़ के बारे में हम नही सोच सकते हैं, क्योंकि नारी और पुरुष एक दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर हैं!

मेरा मानना है, आप भूत के आधार पर भविष्य की कल्पना नही कर सकते. हमारा वर्तमान भविष्य का मार्ग दिखाता है. आज अगर नारियाँ ये आवाज़ उठाती हैं कि उन्हें बराबरी का हिस्सा चाहिए तो उन्हें खुद ही आगे आनी होगी और ये सोचना होगा कि किस तरह पुरुषों से कंधे मिलाकर चल सके. पुरुषों के तरह संघर्ष करने में खुद को पीछे छोड़, और आरक्षण के बल पर वो ना तो आगे बढ़ सकती हैं, और ना बढ़ेंगी. क्योंकि सही मायने में आरक्षण का मुनाफ़ा भी उन्हें ही मिल रहा है जिन्हे वास्तव में इसकी जररूरत नही है!

आज आरक्षण की माँग ज़्यादातर बड़े शहरों की पढ़ी लिखी महिलाएँ करती हैं, लेकिन उन्हें इसकी जररूरत नही है, ये ख़ुद को बुजदिल और पुरुषों से किसी भी बात में पीछे नही मानती हैं. जररूरत किन्हें है इसकी, ये पहचानना भी बहुत ज़रूरी है. वैसे लड़कियाँ अगर ख़ुद आगे बढ़ना चाहेगी तो उन्हें कोई नही रोक सकता है, लेकिन आज भी हमारी मानसिकता में कोई ख़ास बदलाव नही आया है. मैं बहुत करीब से ज़िंदगी को देखने की कोशिश कर रही हूँ और अभी बहुत कुछ देखना बाँकी है!

अपने घर का पुरुष सभी स्त्रियों को अच्छा एवं नेक लगता है, लेकिन दूसरा नलायक. ऐसा पुरुषों के साथ भी है, उन्हें अपने घर की नारियाँ देवी लगती है, बांकी बेकार! ऐसे नज़रिया को बदलना बहुत ज़रूरी है. सभी इंसान में अच्छाई और बुराई होती है, इसका मतलब यह नही की पूरे समाज़ पर दोषारोपण करना चाहिए. अगर कोई भी नारी सशक्तिकरण की बात करती हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने आस पास के झुग्गी झोपड़ी में जाकर दीप जलाने की बात करनी चाहिए, क्योंकि आज इसकी जररूरत है!

आवाज़ उठाने से पहले एक कदम आगे बढ़कर वहाँ सार्थक काम करने की ज़रूरत है, फिर ख़ुद बख़ुद सभी में बदलाव आएगा. हमे समाज में बदलाव लाने के लिए खुद ही आगे बढ़ना होगा, इसलिए ज़रूरत है ख़ुद के अंदर झाँकने की, अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाने की. ख़ुद बदलो सब बदलेगा!

और हाँ, ये पोस्ट मैं बहसबाज़ी करने के लिए नही लिखी हूँ, आप कृपया यहाँ सजेशन दे सकते हैं कि हम कैसे एक सार्थक समाज के बारे में सोचें एवं हमें इसके लिए क्या करना चाहिए. अगर ये नही हो सकता है तो फिर आराम से इग्नोर करें.

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6 टिप्‍पणियां:

  1. "अगर कोई भी नारी सशक्तिकरण की बात करती हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने आस पास के झुग्गी झोपड़ी में जाकर दीप जलाने की बात करनी चाहिए क्योंकि आज इसकी जररूरत है!"
    ये लिख कर आप भी वाही कर रही है जिसके खिलाफ आप लिख रही हैं की मानसिकता अपनी नहीं दुसरो की बदले . ये इंसानी फितरत हैं की हम हमेशा दुसरो को ही सिखाना चाहते हैं वही आप ने भी किया . नारी सशक्तिकरण की बात करने वाली नारियों ओ को क्या करना और क्यों करना है इसका फैसला उन पर ही छोड़ देना चाहेये अगर हम आप की पोस्ट को सही माने मे अपने ऊपर लागु करे .
    मेरी व्यक्तिगत राय हैं की
    नारी सशक्तिकरण का मतलब कही भी नारी और पुरूष से जुडा नहीं हैं . हर व्यक्ति अपने आप मे एक सम्पूर्ण इकाई हैं और उसको अपने सब फैसले खुद करने का अधिकार होना चाहिये , नारी सशक्तिकरण बस यही समझाता हैं
    नारी सशक्तिकरण केवल विवाहित , और विवाह की इच्छा रखने वाली महिला तक ही सिमित नहीं हैं . इसमे अविवाहित , तलाकशुदा भी आती हैं जो जरुरी नहीं हैं की पुरूष के साथ अपनी सम्पूर्णता खोजे .समाज केवल नारी पुरूष से ही नहीं बना हैं समाज एक व्यवस्था हैं जिस मे अभी तक स्त्री को मानव नहीं समझा गया हैं

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  2. ठीक है की सब को चीजें ख़ुद पर पहले लागु करनी चाहिए पर ऐसा क्यों सोच लिया जाता है की जिसने यह पोस्ट लिखा है उसने सिर्फ़ दूसरों को उपदेश ही दिया है.
    रेवा ने तो ख़ुद यह लिख दिया है की उन्हें बहुत कुछ देखना बाकी है तो रचना की इस आलोचना की जरुरत नही थी.
    रचना ये ठीक है की महिला की बात सिर्फ़ विवाहित या विवाह की इच्छुक महिलाओं तक नही है पर यह भी तो सही है की महिला के अधिकारों के सन्दर्भ में पुरूष का अहम् स्थान होता है पति के रूप में ही नही पिता भाई और बेटे के रूप में भी इसलिए यह नारी पुरूष से जुदा हुआ मामला बन जाता है

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  3. मुझे लगता है कि यह हमारे जीन्स में होता है, जिसे नियंत्रित कर पाना सामान्य आदमी के वश में नहीं होता।

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  4. समस्या यह है की ये नारियां माँग तो बराबर के अधिकारों का करेंगी मगर जहाँ प्रतिस्पर्धा दिखी वहीँ 'नारी अधिकार' और 'ladies first' के shortcut धुन्धेंगीं. इन तथाकथित आधुनिकाओं से तो बेहतर वो ग्रामीण और आदिवासी महिलाएं हैं जो घर और बाहर के हर काम में पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिला काम करती हैं और इसके लिए उन्हें कोई ज़ंग नहीं करनी पड़ती. अपनी सार्थकता और सामर्थ्य दिखा ही महिलाएं वास्तविक बराबरी पा सकती हैं, वरना कागजों पर तो बराबर और असमानता की बहस तो चलती ही रहेगी

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  5. आपने बिल्कुल संतुलित बात कही है सही है की सभी को ख़ुद सुधरने की जरुरत है

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hamarivani

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