बुधवार, 3 दिसंबर 2008

टिप्पणियों में संयत भाषा का प्रयोग करें

हमें यह सब इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि कल हमें मजबूरन दो टिप्पणियां मिटानी पड़ीं।

हमारा शुरू से मत रहा है कि सभी को, चाहे वो जो भी बात कह रहा हो अपनी बात कहने का पूरा हक़ है और उनबातों को सुना भी जाना चाहिए कोई इतना भी सही क्यों हो उसे दूसरों को बिना पढ़े, सुने और तर्क किए ग़लतठहराने का हक़ नही मिलता है।

ब्लॉग लिखने का फायदा ही क्या अगर आप दूसरों की बात नही सुन सकते।

इसी भावना को ध्यान में रख कर हमने कभी भी कमेन्ट मोडरेशन का विकल्प नही पसंद किया।

वस्तुतः हमारे जैसे समाज में, जहाँ तमाम तरह की सोच और विचारधाराओं वाले लोग रहते हैं , वार्तालाप कीप्रक्रियाएं हमेशा चलती रहनी चाहिए। इससे सिर्फ़ समझ बढती है बल्कि लोगों को करीब आने का मौका मिलताहै। हिन्दुस्तान की जिन बातों पर हमें हमेशा से नाज रहा है उनमे लगातार चलने वाली वैचारिक आदान-प्रदान कीप्रक्रिया भी शामिल रही है।

हमारा मानना है कि वैचारिक बहसों में एक दुसरे के विचारों के विरोध में और अपने विचारों को रखते हुए हर कोईबिना शिष्टता की सीमा लांघे आक्रामक हो सकता है और उसे होना भी चाहिए।

पर बहस में विवेक खो देना और अशिष्ट टिप्पणियां देना बिल्कुल ही अनुचित है। अशिष्ट टिप्पणियां केवलआपकी व्यक्तिगत कमजोरी का प्रदर्शन करती हैं बल्कि आपकी विचारधारा को भी कमजोर रूप में प्रदर्शित करतीहैं। इस प्रकार की टिप्पणियों से वो लोग जो आपकी बात सुनने को तैयार रहते हैं , आपके और आपकी विचारधाराके प्रति एक नकारात्मक पूर्वधारणा बना लेते हैं।

कल हमने अपने ब्लॉग से दो ऐसी टिप्पणियां मिटायीं जो हमारे लिहाज से शिष्ट और सभ्य वार्तालाप में कभी नहीआनी चाहिए

आपसे हमारा यही निवेदन है कि अपनी बात प्रभावशाली ढंग से रखें और अशिष्टता से बचें।

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपके पास अगर स्पष्ट टिप्पणी नीति है तो यह कुण्ठा बहुत कम हो जाती है।

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  2. ऐसे टिप्पणियों को भी रहने देंगे तो उन सड़ी मानसिकता वालों को पाठक जान पायेंगे । खैर , अपनी नीति बनाइए और उस पर टिके रहिए। कल के पहले भी आपको ऐसा कदम उठाना पड़ा था, शायद।

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  3. भाषा और शब्‍दावली किसी व्‍यक्ति की संस्‍कारशीलता की परिचायक होती है । जोर से और फूहड भाषा में कही बात सच हो, यह कतई जरूरी नहीं ।
    आप अशिष्‍ट शब्‍दावली और भाषा वाली टिप्‍पणियां मत हटाइए । लोगों को मालूम हो जाने दीजिए कि कौन अपने दामाद को 'मेरी लडकी का घरवाला' और कौन 'हमारे जामाता' कह रहा है ।
    जिन्‍हें भाषा के संस्‍कार नहीं मिले उनसे शालीनता, शिष्‍टता, सभ्‍यता की अपेक्षा कर आप उन पर अत्‍याचार कर रहे हैं ।
    वे आक्रोश के नहीं, दया के पात्र हैं । बीमार पर गुस्‍सा मत कीजिए ।

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  4. मैं विष्णु बैरागी जी से सहमत हूँ ! मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ अपने को केन्द्र में लाने के लिए घटिया कमेंट्स देते हैं और कुछ अन्य ब्लागर्स को आपके ब्लाग पर आमंत्रित करते हैं कि वे यहाँ लेखे लेख का प्रतिकार करें ! इस प्रकार अपने आपको सुर्खियों में बनाये रखने में कामयाब रहते हैं ! अतः ऐसे प्रवृत्ति के लोगों को नज़रंदाज़ करना ठीक होता है !
    एक अच्छा लेख !

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  5. लोगों के जो संस्कार होते हैं वो वैसे ही बोलते हैं और वैसे ही लिखते हैं आक्रोश का मतलब असभ्यता नही होता
    तुमने सही किया जो कमेन्ट डिलीट कर दिया

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  6. Ye bahut jarruri tha. Rupali ne sahi kaha hai...logon ke sanskar ka parichay unki bhasha se hoti hai. Aur kuch log hote hein jo galat tarah se tipanni kar bus dusron mein dosh hi dhoondhte hein.

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hamarivani

www.hamarivani.com