सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

शिकायत

किया व्यापर दर्द का
दिया दर्द और हर बार दर्द ही तौला
फ़िर समेत कर सारी अधूरी हसरतें
पुराना सा एक म्यूज़ियम बना डाला।

बंद करली खिड़कियाँ सारी
डाल दिया दरवाजों पर ताला
कैद कर ढेर सारी पहचानी रोशनियाँ
एक गुमनाम अँधेरा बना डाला।

बनकर याद तुम्हारे दिल मे ही रही
तुमने ख़ुद अपने ही दिल को छला,
रोया मन जब भी तुम्हारा साथ देने को
मुस्कुराकर तुमने हर बार बेगाना बना डाला।

(ये कविता मैंने अपने ब्लॉग पर लिखी थी आज इसे यहाँ रख रही हूँ। जिन्होंने इसे वहां एक बार पढ़ लिया है उनसे दुबारा कष्ट देने के लिए क्षमा चाहूंगी।)

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता।

    दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ...
    दीवाली आप और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि लाए।

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  2. बनकर याद तुम्हारे दिल मे ही रही
    तुमने ख़ुद अपने ही दिल को छला,
    रोया मन जब भी तुम्हारा साथ देने को
    मुस्कुराकर तुमने हर बार बेगाना बना डाला।

    खूबसूरत पंक्तियाँ हैं, जो बेहद सच्चे अंदाज में प्रस्फुटित हो रही हैं। इन सुन्दर पंक्तियों के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  3. सुन्दर कविता..
    दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

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  4. Hi Nisha,

    Is poem ko main pahle kayi baar padh chuki hun, aur aaj fir se padhi...mujhe ye poem bahut pasand hai, isliye main baar baar padhti rahungi, khasker ye panktiyan..

    बनकर याद तुम्हारे दिल मे ही रही
    तुमने ख़ुद अपने ही दिल को छला,
    रोया मन जब भी तुम्हारा साथ देने को
    मुस्कुराकर तुमने हर बार बेगाना बना डाला।

    with love.

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  5. तो ये है इस पुराने से म्यूज़ियम की कहानी...कविता बेहद अच्छी है.

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hamarivani

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