हमारे देश में चीजों को देखने के कई चश्में प्रयोग में आते हैं। कुछ तार्किक होते हैं कुछ घोर अतार्किक। चश्मों का एक प्रकार साम्प्रदायिकता भी होता है। स्वघोषित हिंदुत्ववादी चश्में , हिंदुत्व विरोधी चश्में, तथाकथित राष्ट्रवादी चश्में आदि आदि।
ऐसे चश्मों से एक फ़ायदा होता है कि उन्हें लगाने के बाद आप हर घटना और उसके कारणों को उसी चश्मे से देखते हैं सोचने समझने की जरुरत ही नही पड़ती। दिमाग खर्च करने से छुट्टी बस चश्मा लगाओ और धरना बनाओ।
पिछले दिनों मणिपुर की राजधानी इम्फाल में बम धमाका हुआ। शायद मीडिया ने थोड़ा समय उस समाचार को दिया और फ़िर दूसरी घटनाओं की ओर मुड गए। इसे सांप्रदायिक चश्में से देखने वालों ने आरोप लगाया कि
"इम्फाल में हुए बम-विस्फोट में पन्द्रह लोग मारे गए, मीडिया ने छोटा सा कैप्शन दिखा कर औपचारिकता निभा ली, फिर एक कटु प्रश्न सामने रखता हूँ, कि यदि कहीं यह दुर्घटना तथाकथित अल्पसंख्यकों के इलाके हो गई होती तो मीडिया से लेकर संसद तक कहर बरपा होता।"
अब ये तो हद ही है किसी चीज को बस एक ही चश्मे से देखने और कुछ भी कह देने की। क्या जयपुर, बंगलोर, अहमदाबाद, और दिल्ली अल्पसंख्यक इलाके थे जो उन बम विस्फोटों पर मीडिया और देश के राजनितिक जीवन में हंगामा हुआ? ये सभी ऐसे इलाके थे जहाँ सभी सम्प्रदायों के लोग रहते हैं। बल्कि जयपुर तो जहाँ तक हमें मालूम है अल्पसंख्यकों की कम आबादी रखता है । फ़िर मीडिया और राजनैतिक जीवन में वहां के ब्लास्ट पर हंगामा क्यों हुआ? मजे की बात है कि लोग ऐसी अतार्किक बात लिख देते हैं शान से और दूसरों को ग़लत ठहराने की कोशिश करते हैं।
हम न्यूज़ चैनल बहुत कम देखते हैं इसलिए हमें नही पता कि मीडिया ने इम्फाल की घटना को कम महत्त्व दिया या नही। पर अगर कम महत्व दिया तो उसके अलग कारण हैं।
मणिपुर एक पूर्वोत्तर राज्य है और मीडिया जिन ख़बरों को महत्त्व देता है उसके पीछे कहीं न कहीं बाज़ार की भी बड़ी भूमिका होती है। पूर्वोत्तर राज्यों में बाज़ार की रूचि कम है और देश के प्रमुख मीडिया चैनेलों की उपस्थिति और लोकप्रियता भी वहां कम है। अस्तु मीडिया की रूचि भी वहां की घटनाओं में कम ही होती है।
ध्यान देने की बात है कि देश की आजादी के इतने सालों बाद भी विकास पूर्वोत्तर तक कम ही पहुँचा है। हो सकता है उसका एक कारण ये भी हो कि वहां की घटनाओं को वहां के परिप्रेक्ष्य में न देख कर दुसरे कारको के प्रभाव में देखा जाता है और वहां की चीजों की उपेक्षा की जाती हो।
अपने पिछले पोस्ट में हमने दुहरेपन के एक रूप की चर्चा की थी। चीजों को एक विशेष चश्मे से देखने की परिपाटी उसी रूप का एक विस्तार है।
हमें जरुरत है घटनाओं को उनके परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़ कर तार्किक रूप में देखने की न कि पहले से बनाये गए ढाँचे में बिना सोचे समझे फिट करके वास्तविकता से मुह चुराने की। यकीन मानिये हम साधारणीकरण करने के चक्कर में सच्चाई को किनारे रख देते हैं और नई परेशानियों को जन्म देते हैं।
Kuch logon ko problem suljhane ke jagah problem ko uljhane mein maza aata hai. Sath hi aise logon ko baat ka batangad banane mein bhi aanand ki anubhuti hoti hai.
जवाब देंहटाएंअच्छी तहरीर है...
जवाब देंहटाएंchashma chadhana kisne shuru kiya, noakhali me kisne shuruaat ki, aur roshan ji aap se ummeed karoonga ki aap mere blog par tippanni awashya diya karen
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख..लोग समझते नही ऐसी बात नही ..बात यह है समझना नही चाहते.
जवाब देंहटाएंsahi hai log baat samajhna nahi chahte
जवाब देंहटाएंगुत्थी सुलझाने की चाबी जिनके पास है वह दृष्टिदोष होते हुए भी चश्मा उतारकर देख रहे हैं। रही बात मीडिया की तो आपकी बात सही है कि बाजार मीडिया की सोच पर भारी है।
जवाब देंहटाएंमीडिया अटेन्शन शायद पूर्वोत्तर राज्य के कारण कम है।
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