शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

कलम लेखको से लहू मांगती है!

अभी रिक्त भरना है! खाका चमन का,
नया रूप गढ़ना है! उजडे वतन का
पहाडो का दामन छुए पडोसी,
सुला कर गर्दन दबाये सपन का
सजाले पुजारी हृदय की उषा को,
धरा यह रवानी की बू मांगती है

कलम लेखको से लहू मांगती है!

वतन के लिये ही कलम जन्मती,
समर्पण वतन के लिये जानती है
वतन के बिना शब्द रहते अधूरे,
वतन को कलम ज़िन्दगी मानती है
हवन हो रहा है युगों से वतन पर,
वतन की चिता ज़िन्दगी मांगती है

कलम लेखको से लहू मांगती है!

प्रखर चेतना के नये गीत लेकर,
बहाती प्रवाहों की धारा धरा पर
क्षितिज लाल पूरब का करती कलम ही,
कुहासे की धूमिल घटाएँ हटा कर
विषम काल से जूझती है मगर अब,
शहादत की वेदी पे खू मांगती है

कलम लेखको से लहू मांगती है!

कलम क्रांति का कर रही है आमंत्रण,
कलम शांति का कर रही है निमंत्रण
कलम काल का भाल रंगने चली है
चली है दमन पर अमन का ले चित्रण
कलम सर कलम कातिलो का करेगी,
कलम आँसुओं की दुआ मांगती है

कलम लेखको से लहू मांगती है!


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5 टिप्‍पणियां:

  1. "विषम काल से जूझती है मगर अब,
    शहादत की वेदी पे खू मांगती है
    कलम लेखको से लहू मांगती है!"

    और आलोचकों से?

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  2. कलम तो पूरी पीढ़ी से बलिदान मांगती है। सदा से।

    अच्छी कविता।

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  3. देव बाबु! आपने कलम के सन्दर्भ में आलोचकों की भूमिका की बात उठाई है, ये बात बिल्कुल प्रासंगिक भी है| आलोचकों और लेखकों में मैं बस इतना ही अर्थभेद मनाता हूँ की लेखक अपनी लेखनी के माध्यम से संवाद का आयाम स्थापित करता हैं तो वही दूसरी तरफ़ आलोचक लेखनी के उस स्थापित आयाम को व्यापकता का आवरण देता है| इन हालातों में लेखकों से ज्यादा आलोचकों की भूमिका साहित्य और समाज के लिये महत्वपूर्ण है| लेकिन आलोचना का सकारात्मक संवाद कहीं उससे भी ज्यादा आवश्यक है| सही मायने में लेखकों और आलोचकों को लेकर पाठकों में मतभेद हो तो सही है लेकिन मनभेद हो तो उतना ही नकारात्मक परिवेष का निर्माण होगा इसलिये इस बहस से दूर रहना ही हितकर होगा| आये दिनों दिखने और सुनाई देने वाले असामाजिक परिणाम भी इसी और संकेत करतें हैं कि मनभेद के पूर्वाग्रह ने समाज की कितनी क्षति की है| मैं व्यतिगत होकर ये कहना चाहता हूँ कि हमें अपनी सोच को विस्तार देना होगा जिसमें इतना सामर्थ्य ज़रूर हो की वो पूर्वाग्रहों को तोड़, याथार्थ की परिभाषा गढ सके|

    आपकी आलोचना का मैं स्वागत करता हूँ, आलोचना का स्वाभाव भी सहज ही किसी को नहीं मिल जाता| ये विशेषता विस्तार न ले तो हर तर्क कुतर्क ही होगा|

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  4. कविता के शब्द और भावनाएँ अच्छी लगीं।

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  5. Soch ne par viwas karti hai aapki yeh rachna.

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