शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

हँस पडे मुँह खोल पत्ते....!

चरमराती सुखी डाली,
छोड़ उपवन रोये पत्ते|

जब अधर पर पाँव पड़ते,
कड़-कड़ाते बोले पत्ते|

धरा धीर धर अनमने से,
रोये मन टटोल पत्ते|

चिल-चिलाती धुप तपती,
जल गये हर कोर पत्ते|

वृक्ष की अस्थि ठिठुरती,
देख मातम रोए पत्ते|

फिर पथिक है ढूंढ़ता,
विश्राम के आयाम को|

देख कर परिदृश्य पागल,
हँस पडे मुँह खोल पत्ते|

आपका यायावरी पर स्वागत है

13 टिप्‍पणियां:

  1. पतझड़ में पत्तों की कविता. स्वागत.

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  2. फिर पथिक है ढूंढ़ता,
    विश्राम के आयाम को|

    देख कर परिदृश्य पागल,
    हँस पडे मुँह खोल पत्ते|

    beautiful lines!!!!

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  3. WAAH ! WAAH ! WAAH !

    Adbhut shabd chayan aur atisundar abhivyakti...Shabd ke maadhyam se aapne to sajeev chitrit kar diya sab....sachmuch patte bolte lage..waah!

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  4. इस रचना को आप लोगों के द्वारा दिये सभी उपमाओं का मैं स्वागत करता हूँ, और अपेक्षा करता हूँ कि आपलोगों की सराहना निरंतर मेरे रचनाधर्म को प्रवाह देती रहेंगीं| धन्यवाद!

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  5. कविता पढ कर पतझड का एहसास हुआ। रचना सुंदर बन पडी है, बधाई।

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  6. आजतक पढ़ी बेहतरीन कविताओं में से एक है ये कविता.
    पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही लगा जैसे पहली बार बसंती हवा कविता पढ़ते हुए महसूस हुआ था
    बहुत खूब अनुराग!

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  7. तस्लीम जी! आपकी सराहना का हृदय से स्वागत करता हूँ! धन्यवाद!

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hamarivani

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