मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

यहाँ कोई रोक-टोक नही है अभी

लखनऊ में कपूरथला चौराहा उन जगहों में शामिल है जहाँ हम कुछ दोस्त अक्सर मिला करते हैं कपूरथलाचौराहे पर ख़ास बात युनिवर्सल बुक डिपो में है जहाँ का हिन्दी और और अंग्रेजी दोनों ही सेक्शन अच्छा है एकऔर ख़ास बात नेस्कैफे के स्टाल में है जहाँ फुटपाथ और काफ़ी दोनों का आनंद एक साथ लिया जा सकता है
दो-तीन दिन पहले हम दो दोस्त युनिवर्सल बुक डिपो के दोनों सेक्शन छान कर नेस्कैफे के बगल काफ़ी ले कर बैठेतो अचानक सूखे मेवे लेकर फेरी लगाने वाला एक कश्मीरी दिख गया। हमें अंजीर और कश्मीर दोनों बहुत पसंद है अंजीर तो उसके पास ख़त्म हो चुका था पर कश्मीर बाकी था हम दोनों उसके साथ कश्मीर के बारे में बात करनेलगे।
कश्मीर के चुनाव के बाद अक्सर अलगाव वादी आरोप लगते रहे कि इन चुनावों में लोगो को जबरदस्ती वोट डालनेपर मजबूर किया गया था हमने फैज़ल (उस कश्मीरी युवक का नाम फैज़ल था ) से पहली बात यही पूछी। फैज़लसे पता चला कि कश्मीर में पिछले कुछ टाइम में काफ़ी कुछ बदला है और लोग खुशहाल हुए हैं नेताओं कोअंदाजा नही था कि लोग वोट डालना चाहते हैं उन्हें अंदाजा होता तो वो भी चुनाव लड़ते। हमें अच्छा नही लगा जबउसने कहा कि फौजी परेशान करते हैं पर याद किया तो समझ में आया कि फौज का व्यवहार नागरिकों के बीच मेंहमेशा कोई बहुत शानदार नही रहता है। ट्रेनों में उनका व्यवहार देख कर अगर हमें बुरा लगता है तो कश्मीरियों कोक्यों नही लग सकता ?
फैज़ल ने बताया कि अगर नए मुख्यमंत्री उमर अपने पिता फारुख की तरह रहते हैं तो लोगों में उपजा भरोसा ख़त्महो जायेगा अगर थोड़ा भी अच्छा रहे तो इनको कोई हटा नही पायेगा
हमारे दोस्त ने पूछा कि लखनऊ में जो लोग मिलते हैं उनका व्यवहार कैसा लगता है तो उसने बिना लाग-लपेट केबता दिया कि अधिकतर लोग खुश होते हैं पर कुछ लोग कभी कभी उल्टा सीधा भी कहते हैं। हमने सोचा किआख़िर फेरी लगाने आए कश्मीरी उल्टा सीधा बोल कर किसी को क्या संतुष्टि मिलती होगी।
अंत में उसने एक बात कही जो हम जैसों को जो लखनऊ जैसी अपेक्षाकृत शांत जगह रहते हैं उन्हें कभी समझ मेंनही सकती है। उसने कहा कि लखनऊ में उसे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ कोई रोक टोक नही है चाहेजहाँ घूमो फिरो चाहे जितने देर तक घूमो फिरो।
हम सोचने लगे कि कैसा लगता होगा किसी भी जगह के रहने वालों को जब उन्हें आते जाते पूछा जाता होगा किकहा जा रहे हो कहाँ से रहे हो, कैसा लगता होगा जब शाम के एक निश्चित समय के बाद घर से बाहर निकलनावर्जित होता होगा, कैसा लगता होगा जब उनके अपने शहर में उनके अपने इलाके में औचित्य की जरुरत पड़तीहोगी कहीं रहने के लिए।
कैसा लगता होगा उन्हें जिन्हें अपने घर छोड़ कर कैम्पों में जिंदगी काटनी पड़ती होगी एक दो महीने , एक दो सालकश्मीरी पंडितों के लिए तो शायद एक दो पीढियां या और भी ज़ियादा।
फैज़ल ने बताया कि अभी भी टाइम लगेगा कश्मीरी पंडितों की वापसी में उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि समस्या कासमाधान कश्मीरी पंडितों को जम्मू कैम्प से उठा कर श्री नगर के कैम्प में डालने में नही है। समस्या का समाधानहै उस स्थिति का निर्माण जिसमे कश्मीरी पंडित ख़ुद अपने आप अपने घरों में जा सकें। हम सहमत हैं उमर साहबपर बीस साल एक लंबा अरसा होता है लोग निराश हैं।
क्या कश्मीरियों का भी फ़र्ज़ नही बनता था कि अपने ही भाइयों के हक़ में आगे बढ़ के बोलें। क्या लोग जमीन सेज्यादा कीमती हैं?
लेकिन लोग अपने वंचित भाइयों के बारे में नही सोचते।
कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों के लिए आन्दोलन नही छेड़ेंगे।
गुजरात के लोग सरदार सरोवर बाँध से तृप्त तो होंगे लेकिन नर्मदा के विस्थापितों के अधिकार की नही सोचेंगे। जोउनके अधिकारों को समर्थन देगा उसके ख़िलाफ़ गुंडागर्दी पर उतर आयेंगे (यहाँ हम कश्मीर और गुजरात के आमलोगों की बात कर रहे हैं नेताओं के समर्थक भावुक हों )
ओह कहाँ से शुरू किया था कहाँ गए मुआफ कीजियेगा इधर उधर भटकने के लिए ये यहाँ सिर्फ़ इसलिए होपाया क्योकि अभी तक यहाँ भी
कोई रोक टोक नही है कुछ भी करो कहीं भी भटको , कोई नही पूछता कल इसतरह से मौका मिले मिले

चलते-चलते : गुलज़ार साब ने फ़िल्म यहाँ के लिए एक गाना लिखा था पूछे जो कोई मेरी निशानी
उसमे एक लाइन है
आओ
आओ जेहलम में बह लेंगे
कोई वादी के मौसम भी एक दिन तो बदलेंगे
आमीन

10 टिप्‍पणियां:

  1. कश्मीर हम भी दो साल पहले गए थे. वहां जा कर महसूस किया कि हम आम भारतीयों का भी फ़र्ज़ है कि यहाँ आते रहें ताकि यहाँ का पर्यटन उद्योग जो फ़िर से अंकुरित होने लगा है वापस विस्तृत आकार ले सके. वहां लोग अक्सर खामोश पाये मैंने, हाँ मेरा घोड़ावाला बहुत बातूनी था उसके ख्याल भी कुछ कुछ आपके फैसल जैसे थे.

    जवाब देंहटाएं
  2. वादी के मौसम भी एक दिन तो बदलेंगे ॥
    आमीन

    जवाब देंहटाएं
  3. हालात मुश्किल में है ... कजिन आर्मी में है ..उसका कहना है तिरंगा फहराने के बाद उसकी रक्षा करने के लिए भी जवानो को पहरा देना पड़ता है ...मीडिया अन्दर की ख़बर नही देता ..जगमोहन जी एक किताब थी अभी नाम याद नही आ रहा ...उमर अब्दुल्लाह से उम्मीदे है ..गुलज़ार का ये गाना आज शाम ही गाड़ी में सुनते सुनते आया हूँ....
    ये मसला हल हो..बस यही दुआ है

    जवाब देंहटाएं
  4. रोशन जी ! भावुक तो आप हो रहे है कश्मीर के बारे में बात करते हुए......धरती के जन्नत को दोजख किसने बना डाला. आखिर ये मुसलमान युवा बन्दूक पकड़ने के लिए इतना बेताब क्यों रहते है?? कभी मौका मिले तो इस सवाल को भी पूछियेगा उस फेरी वाले फैजल से....
    जहाँ तक बात है फौज के व्यवहार की - कभी एक आध महीने उस माहौल में रहिये आपको अपना उत्तर स्वयं मिल जायेगा.

    जवाब देंहटाएं
  5. अंत में उसने एक बात कही जो हम जैसों को जो लखनऊ जैसी अपेक्षाकृत शांत जगह रहते हैं उन्हें कभी समझ मेंनही आ सकती है। उसने कहा कि लखनऊ में उसे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ कोई रोक टोक नही है चाहेजहाँ घूमो फिरो चाहे जितने देर तक घूमो फिरो।

    शायद यह वैसा ही होगा जैसे कैद में रहा पक्षी पिंजरे के बाहर निकल आया हो।

    जवाब देंहटाएं
  6. अपनी तिजोरी से नज़र हटेगी तब दूसरो क़ी खाली जेबे नज़र आएगी.. बहुत ही उम्दा लेख है रौशन भाई.. फिल्म यहाँ कश्मीर क़ी कई पारट खोलती है.. फिल्म बहुत ही उम्दा है.. गुलज़ार साहब के लिखे गीतो ने इस फिल्म में जान डाल दी है.. अगर यहाँ फिल्म देखी जाए तो कश्मीर का एक अलग रूप उसमे मिलता है..

    जवाब देंहटाएं
  7. वहां भी लोग अब शान्ति से रहना चाहते हैं ,वादी के मौसम जरुर बदलेंगे आपने अच्छा लिखा है

    जवाब देंहटाएं
  8. हमारी भी कामना है कि वादी के मौसम एक दिन बदलें. और वाकई शुक्र है कि ब्लोग्स पर भटकने में अभी कोई अवरोध नहीं है.

    जवाब देंहटाएं
  9. आप ने एक सवाल तो काफी अच्छा दिया है .... लेकिन यहाँ मौजूद निशाचर जी की टिपण्णी से थोडी सी परेशानी हो रही है जो सीधे रौशन भइया से ही एक कौम को ही इंगित करके एक प्रश्न पूछ रहे है...... और ख़ुद के लिए कोई मार्ग नही रख रहें की इस देश की अन्य जगहों पर ऐसे माहौल को जन्म न लेने दिया जाए.......
    बाकि एक चीज और ये लेख पढ़ते पढ़ते मै कपूरथाला के उसी तथाकथित माहौल में पहुँच गया था....

    जवाब देंहटाएं

hamarivani

www.hamarivani.com